Friday, 06 January 2012
(पौष शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
अहंकृत-रहित होना
अपने लिए एकमात्र चिर-विश्राम ही उपयोगी है। विश्राम की उपलब्धि विचार-सिद्ध है । विचार का उदय शारीरिक श्रम से नहीं होता, अपितु निज-ज्ञान के आदर में ही निहित है, जो साधक को अपने ही द्वारा करना है। ज्ञान का आदर श्रम-साध्य उपाय नहीं है, अपितु श्रम-रहित होने पर ही ज्ञान का प्रकाश स्पष्ट होता है ।
'ज्ञान' अज्ञान का नाशक है तथा अपने ही द्वारा अपने आप का प्रकाशक है । ज्ञान से ही सभी प्रकाशित होते हैं, ज्ञान को कोई अन्य प्रकाशित नहीं करता । जिससे सब कुछ जाना जाता है, उसको किसी अन्य के द्वारा नहीं जाना जाता । अतः अपने लिए कोई कृत (कार्य) अपेक्षित नहीं है । निज ज्ञान के आदर मात्र से ही साधक देहाभिमान रहित हो, विश्राम पाता है ।
साधक जिन उपकरणों से जगत् को देखता है, उनसे अपने को नहीं देख सकता । अपने को अपने ही द्वारा अनुभव करता है। अपने को अनुभव करने के लिए अपने से भिन्न किसी करण की अपेक्षा नहीं होती । समस्त प्रवृतियाँ, अर्थात् कर्म शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के द्वारा ही सिद्ध होते हैं और उन प्रवृतियों का सम्बन्ध जगत् के साथ होता है, अपने प्रति नहीं ।
अहितकर प्रवृतियों का त्याग करने पर हितकर प्रवृतियाँ स्वतः होने लगती हैं । साधक प्रमादवश सर्व-हितकारी प्रवृतियों के अभिमान को अपने में आरोपित कर, उनमें आबद्ध हो जाता है, अर्थात् स्वतः होनेवाली भलाई का फल भोगने लगता है । उसी का परिणाम यह होता है कि भोक्ता होकर बुराई करने लगता है। बुराई-रहित होना त्याग है, कर्म नहीं । बुराई-रहित होने का परिणाम स्वतः भलाई होना है । यह सेवा है कर्म नहीं । सेवा जगत् के लिए और त्याग अपने लिए उपयोगी है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'साधन-निधि' पुस्तक से । (Page No. 22-23)
'ज्ञान' अज्ञान का नाशक है तथा अपने ही द्वारा अपने आप का प्रकाशक है । ज्ञान से ही सभी प्रकाशित होते हैं, ज्ञान को कोई अन्य प्रकाशित नहीं करता । जिससे सब कुछ जाना जाता है, उसको किसी अन्य के द्वारा नहीं जाना जाता । अतः अपने लिए कोई कृत (कार्य) अपेक्षित नहीं है । निज ज्ञान के आदर मात्र से ही साधक देहाभिमान रहित हो, विश्राम पाता है ।
साधक जिन उपकरणों से जगत् को देखता है, उनसे अपने को नहीं देख सकता । अपने को अपने ही द्वारा अनुभव करता है। अपने को अनुभव करने के लिए अपने से भिन्न किसी करण की अपेक्षा नहीं होती । समस्त प्रवृतियाँ, अर्थात् कर्म शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के द्वारा ही सिद्ध होते हैं और उन प्रवृतियों का सम्बन्ध जगत् के साथ होता है, अपने प्रति नहीं ।
अहितकर प्रवृतियों का त्याग करने पर हितकर प्रवृतियाँ स्वतः होने लगती हैं । साधक प्रमादवश सर्व-हितकारी प्रवृतियों के अभिमान को अपने में आरोपित कर, उनमें आबद्ध हो जाता है, अर्थात् स्वतः होनेवाली भलाई का फल भोगने लगता है । उसी का परिणाम यह होता है कि भोक्ता होकर बुराई करने लगता है। बुराई-रहित होना त्याग है, कर्म नहीं । बुराई-रहित होने का परिणाम स्वतः भलाई होना है । यह सेवा है कर्म नहीं । सेवा जगत् के लिए और त्याग अपने लिए उपयोगी है ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'साधन-निधि' पुस्तक से । (Page No. 22-23)