Thursday, 5 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 05 January 2012
(पौष शुक्ल पुत्रदा एकादशी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

अहंकृत-रहित होना

        अहंकृत-रहित होते ही अहम् भाव रूपी अणु सदा के लिए मिट जाता है, जिसके मिटते ही, जो सदैव है, उससे किसी प्रकार की दुरी, भेद तथा भिन्नता नहीं रहती, अर्थात् योग, बोध और प्रेम की प्राप्ति स्वतः होती है । यह अनन्त का मंगलमय विधान है ।

        अपने लिए कुछ भी करने का प्रश्न तभी तक रहता है, जब तक मानव पराधीनता से उत्पन्न मान और भोग की रूचि की पूर्ति में ही जीवन-बुद्धि स्वीकार करता है, जो वास्तव में भूल है, अर्थात् भूल-काल में ही अपने लिए कुछ करने की बात मानव स्वीकार करता है ।

        जीवन उपयोगी हो जाय, यह तभी सम्भव होगा, जब अपने लिए कुछ भी करना शेष न रहे; कारण, कि 'अपने लिए कुछ करना है', यह स्वीकार करते ही कर्म-सामग्री का आश्रय लेना अनिवार्य हो जाता है । सामग्री का आश्रय लेते ही साधक का मूल्य परिस्थिति से घट जाता है और फिर वह परिस्थितियों का दास हो जाता है ।

        परिस्थितियों की दासता साधक को न तो उदार होने देती है और न स्वाधीन रहने देती है । उदारता और स्वाधीनता के बिना, जीवन जगत् के लिए और अपने लिए उपयोगी नहीं हो सकता । जो जीवन अपने लिए और जगत् के लिए अनुपयोगी हो, क्या वह जीवन अपने आश्रय तथा प्रकाशक एवं रचयिता के लिए उपयोगी हो सकता है ? कदापि नहीं; कारण, कि प्रेम का प्रादुर्भाव ही जीवन को जगत्-पति के लिए उपयोगी सिद्ध करता है ।

        स्वार्थ भाव और पराधीनता में आबद्ध मानव का भला, क्या प्रेम के साम्राज्य में प्रवेश हो सकता है ? कदापि नहीं । इस दृष्टि से प्रत्येक साधक के जीवन में उदारता तथा स्वाधीनता की अभिव्यक्ति होनी चाहिए, जो एकमात्र तभी हो सकती है, जब साधक को अपने लिए कुछ भी करना शेष न रहे ।

        जब यह स्पष्ट ही है कि इस शरीर में अहम् तथा मम-बुद्धि स्वीकार करना भूल है, तब यह अनिवार्य हो जाता है कि मिला हुआ और उसी की जाति का देखा हुआ अपने लिए नहीं है । 

 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'साधन-निधि' पुस्तक से । (Page No. 21-22)