Wednesday, 11 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 11 January 2012
(माघ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - कर्म से स्थाई प्रसन्नता क्यों नहीं मिलती है ?
उत्तर - कर्म, शरीर, व संसार, इन तीनों का स्वरूप एक ही है । इनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है उससे स्वतन्त्रता नहीं मिल सकती। स्वतन्त्रता के बिना प्रसन्नता कहाँ ? अतः कर्मादि से प्रसन्नता नहीं मिल सकती ।

प्रश्न - कर्म किस प्रकार करना चाहिए ?
उत्तर - कर्म विश्व-प्रेम के भाव से करना चाहिए । ऐसा करने से भोगों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । भोगों का यथार्थ ज्ञान होने पर त्याग अपने आप होता है । फिर कर्म करने में रूचि नहीं रहती। करने के राग की निवृति हो जाती है और योग प्राप्त होता है।

प्रश्न - मनुष्य को शान्ति क्यों नहीं मिलती ?
उत्तर - कामना पूरी करने के लिए कर्म करने से शान्ति नहीं मिलती । साधक यदि चित-शुद्धि का प्रयत्न करे, तो शान्ति अपने आप आ जाती है ।

प्रश्न - भगवान् हमसे प्रेम करते हैं, यह कैसे मालूम हो ?
उत्तर - भगवान् पर विश्वास हो और उनसे हमारा सम्बन्ध हो, तब मालूम हो सकता है । जैसे माता अपने बच्चे के लिए तरसती है, वैसे ही भगवान् अपने भक्त के लिए तरसते हैं । बच्चा काला-कलूटा, गूँगा-बहरा, लूला-लँगड़ा कैसा भी हो, माता उससे प्रेम करती है । बच्चा भी यह बात समझता है । भगवान् में तो माता से अनेक गुना वात्सल्य है । फिर वे भक्त से प्रेम करें, इसमें कहना ही क्या ? अतः जो एकमात्र भगवान् को ही मानते हैं, उनको भगवान् का प्रेम मिलता है । इसमें सन्देह नहीं है। यह भक्तों का अनुभव है । ईश्वर प्रेमीभक्त को ढूँढ़ता है। विचारशील साधक ईश्वर को ढूँढ़ता है ।

प्रश्न - अपने दोष कैसे देखें और उसको कैसे मिटाएँ ?
उत्तर  - गुण और दोषों को देखने की शक्ति प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान है । जिस योग्यता से हम दूसरों के दोषों को देखते हैं, उसी योग्यता से अपने दोषों को देखें । अपने दोषों को ठीक-ठीक देख लेने पर गहरा दुःख होता है । गहरा दुःख होने से दोष दूर हो जाते हैं । दूसरों के दोष और अपने गुण देखने से मनुष्य का विकास रुक जाता है और अभिमान पुष्ट होता है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, (Page No. 12-13) ।