Monday, 7 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 07 November 2011
(कर्तिक शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

15.    सबसे बड़ा उपदेशक कौन है ? जो जीवन से उपदेश करता है । वह सबसे बड़ा वक्ता है, सबसे बड़ा पण्डित है, सबसे बड़ा सुधारवादी है । और सबसे घटिया कौन है ? जो परचर्चा करके उपदेश करता है । कभी व्यक्तियों की चर्चा, कभी परिस्थितियों की चर्चा ।

16.    कर्तव्यनिष्ठ होने से ही कर्तव्यपरायणता फैलती है, समझाने से नहीं, उपदेश करने से नहीं, शासन करने से नहीं, भय देने से नहीं, प्रलोभन देने से नहीं ।

17.    जहाँ तक संसार की सत्यता और सुन्दरता का भास है, वहाँ तक काम-ही-काम है ।

18.     जब साधक प्राप्त विवेक के द्वारा शरीर के वास्तविक स्वरूप का दर्शन कर लेता है, तब शरीर की सत्यता और सुन्दरता मिट जाती है । उसके मिटते ही काम का अन्त हो जाता है ।

19.    जो कुछ नहीं चाहता, वही 'प्रेम' कर सकता है और जो कुछ नहीं चाहता, वही 'मुक्त' हो सकता है ।

20.    मेरा अपना अब तक का अनुभव है कि जो हम चाहते हैं, वह न हो, इसी में हमारा हित है । हमने तो जब तक अपने मन की बात मानी है, अपने मन की बात की है, तो सिवाय पतन के, सिवाय अवनति के हमें तो कुछ परिणाम में मिला नहीं । ........मैं आपके सामने अपनी अनुभूति निवेदन कर रहा हूँ, और इससे लाभ उठाना चाहते हैं तो अपनी चाही मत करो । प्रभु की चाही होने दो । प्रभु वही चाहते हैं, जो अपने-आप हो रहा है ।

21.    किसी भी प्रकार की कामना न रखनेवाला 'राजाओं का राजा'; जो शक्ति प्राप्त है उससे कुछ कम कामना रखनेवाला 'धनी'; शक्ति के समान कामना रखनेवाला 'मजदूर'; शक्ति से अधिक कामना रखनेवाला 'कंगाल' है।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।