Tuesday, 08 November 2011
(कर्तिक शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
22. कामना ही क्रोध में हेतु है, चाहे शुभ कामना हो अथवा अशुभ। यद्यपि अशुभ से शुभ श्रेष्ठ है, परन्तु शुभ कामना भी दुःख का कारण है ।
23. भगवान इच्छा पूरी नहीं करते, वे तो भक्त को इच्छा-रहित करते हैं ।
24. इच्छाओं के रहते हुए प्राण चले जायँ तो 'मृत्यु' हो गयी और प्राण रहते हुए इच्छाएँ चली जायँ तो 'मुक्ति' हो गयी ।
25. जब अपने मन की इच्छा के विपरीत हो, तब साधक को समझना चाहिए कि अब प्रभु अपने मन की बात पूरी कर रहें हैं ।
26. यदि भगवान के पास कामना लेकर जायँगें तो भगवान संसार बन जायँगे और यदि संसार के पास निष्काम होकर जायँगे तो संसार भी भगवान बन जाएगा । अतः भगवान के पास उनसे प्रेम करने के लिए जायँ और संसार के पास सेवा करने के लिए, और बदले में भगवान और संसार दोनों से कुछ न चाहें तो दोनों से ही प्रेम मिलेगा ।
27. परमात्मा से यदि कुछ भी माँगेंगे तो आपका सम्बन्ध परमात्मा से तो रहेगा नहीं, जो हम माँगेंगे, उससे हो जाएगा ।
28. अपने को जो चाहिए, वह अपने में है ।
29. अगर आप यह मानते हैं कि सत्य की जिज्ञासा के साथ-साथ असत् की कामना भी है, तो कहना पड़ेगा कि सत्य की जिज्ञासा के नाम पर किसी असत् का ही भोग करना चाहते हैं ।
30. हमने अपने में जो चाह पैदा कर ली है, यही हमारे और प्रभु के बीच में मोटा परदा कहो, चाहे गहरी खाई कहो, बन गयी है ।
(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।
23. भगवान इच्छा पूरी नहीं करते, वे तो भक्त को इच्छा-रहित करते हैं ।
24. इच्छाओं के रहते हुए प्राण चले जायँ तो 'मृत्यु' हो गयी और प्राण रहते हुए इच्छाएँ चली जायँ तो 'मुक्ति' हो गयी ।
25. जब अपने मन की इच्छा के विपरीत हो, तब साधक को समझना चाहिए कि अब प्रभु अपने मन की बात पूरी कर रहें हैं ।
26. यदि भगवान के पास कामना लेकर जायँगें तो भगवान संसार बन जायँगे और यदि संसार के पास निष्काम होकर जायँगे तो संसार भी भगवान बन जाएगा । अतः भगवान के पास उनसे प्रेम करने के लिए जायँ और संसार के पास सेवा करने के लिए, और बदले में भगवान और संसार दोनों से कुछ न चाहें तो दोनों से ही प्रेम मिलेगा ।
27. परमात्मा से यदि कुछ भी माँगेंगे तो आपका सम्बन्ध परमात्मा से तो रहेगा नहीं, जो हम माँगेंगे, उससे हो जाएगा ।
28. अपने को जो चाहिए, वह अपने में है ।
29. अगर आप यह मानते हैं कि सत्य की जिज्ञासा के साथ-साथ असत् की कामना भी है, तो कहना पड़ेगा कि सत्य की जिज्ञासा के नाम पर किसी असत् का ही भोग करना चाहते हैं ।
30. हमने अपने में जो चाह पैदा कर ली है, यही हमारे और प्रभु के बीच में मोटा परदा कहो, चाहे गहरी खाई कहो, बन गयी है ।
(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।