Sunday, 6 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 06 November 2011
(कर्तिक शुक्ल हरि प्रबोधिनी एकादशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

7.    कुछ न करने से जीवन अपने लिए उपयोगी हो जाता है और सही करने से जीवन जगत् के लिए उपयोगी हो जाता है ।

8.    अपने लिए कुछ करना है - यह असत् का संग है ।

9.    यह मान लेना कि हम जब कुछ करेंगे, तभी कुछ मिलेगा, बिना किये कुछ नहीं मिलता है - इस धारणा में आस्था करना मानव को अविनाशी जीवन से विमुख करना है ।

10.    जो दिन-रात अपने अहम् के ही महत्व को बढ़ाता रहता है, दुनिया उसका मुँह देखना पसन्द नहीं करती ईमानदारी से ।

11.    'सबहिं नचावत राम गोसाईं'  - यह उस भक्त के हृदय की पुकार है कि जिसका अहंभाव मिट गया हो ।

12.    हमें अपने में से 'मैं सर्वहितैषी हूँ', 'मैं अचाह हूँ', अथवा 'मुझे अपने लिए संसार से कुछ नहीं चाहिए' - यह अहंभाव भी गला देना चाहिए यह तभी सम्भव होगा, जब सर्वहितकारी प्रवृति होने पर भी अपने में करने का अभिमान न हो और चाह-रहित होने पर भी 'मैं चाह-रहित हूँ' ऐसा भास न हो । कारण कि अहंभाव के रहते हुए वास्तव में कोई अचाह हो नहीं सकता; क्योंकि सेवा तथा त्याग का अभिमान भी किसी राग से कम नहीं है।

13.    अगर तुम दूसरों के लिए बोलते हो, दूसरों के लिए सुनते हो, दूसरों के लिए सोचते हो, दूसरों के लिए काम करते हो तो तुम्हारी भौतिक उन्नति होती चली जायगी । कोई बाधा नहीं डाल सकता । अगर तुम केवल अपने लिए सोचते हो तो दरिद्रता कभी नहीं जायगी ।

14.    मैं तो इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि हम सबका वर्तमान हम सबके विकास में हेतु है; चाहे दुःखमय है वर्तमान, चाहे सुखमय है।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।