Saturday, 5 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 05 November 2011
(कर्तिक शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

सन्त हृदयोद्गार

1.    अगर आप भगवान को मानते हैं, तो उस मान्यता का परिचय हमारे आपके जीवन से हो, केवल विचारों से नहीं । हमारा जीवन बता दे कि हम भगवान को मानते हैं ।

2.    बहुत से लोग हैं जो प्रभु को मानते हैं । बहुत से लोग हैं जो संसार की वास्तविकता को जानते हैं । महत्व की बात यह है कि उस जाने हुए का प्रभाव कितना है जीवन में; उस माने हुए का प्रभाव कितना है जीवन में ।

3.     भगवान का स्मरण करने से जीव का कल्याण होता है - यह बात भी हम अच्छी तरह जानते हैं, फिर भी मन भगवान में नहीं लगता, तो इससे बढ़कर और नास्तिकता क्या होगी ?

4.    वस्तुविशेष में भगवद्बुद्धि होना कोई कठिन बात नहीं है । पर यह अधूरी आस्तिकता है । पूरी आस्तिकता का तो अर्थ यह है कि भगवान से भिन्न कुछ है ही नहीं । अभी भी नहीं है, पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं होगा ।

5.    गहराई से देखिए, किसी का होना कुछ अर्थ नहीं रखता, जबतक कि उससे अपना सम्बन्ध न हो, और किसी से भी सम्बन्ध उस समय तक नहीं होता, जबतक कि उसकी आवश्यकता न हो ।   

6.    अगर आपको उनके (संसार के रचयिता के) बिना अनुकूलता प्रिय है, तो वह उसी प्रकार की है कि एक सुन्दर कमरा सजा है और आप दोस्त के बिना हैं; एक सुन्दर स्त्री श्रृंगार करे और पति से वंचित रहे, या शरीर आत्मा-रहित हो । आस्तिकवाद का न होना जीवन में अकेले पड़े रहने के समान है।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।