Friday, 4 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 04 November 2011
(कर्तिक शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)

प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        प्रेमियों में प्रेम वे (संसार के रचयिता) ही हैं, ज्ञानियों में ज्ञान वे ही हैं, योगियों में योग वे ही हैं । सब कुछ वे ही हैं, और कुछ है नहीं । कोई और है नहीं, हो सकता नहीं, कभी होगा नहीं । वे ही वे हैं, वे ही वे हैं । तब उनका प्यारा कह उठता है कि तुम ही तुम हो, सब कुछ तू है, सब कुछ तेरा है, न मैं हूँ, न मेरा है; केवल तू है और तेरा है । यह प्रेमियों का सहज स्वभाव है । यह स्वभाव भी प्रेमियों को उन्हीं का दिया हुआ है । यह मानव के पुरुषार्थ से सिद्ध नहीं हुआ । पुरुषार्थियों में पुरुषार्थ करने की जो सामर्थ्य है, वह भी उन्हीं की दी हुई है ।

        वे स्वयं सामर्थ्यरूप हैं, वे ही विवेकरूप हैं और वे ही सत्तारूप हैं । सब कुछ उन्हीं का है और सब कुछ वे ही हैं । अतः हम सबको उनकी आत्मीयता चाहिए । हमारे और उनके बीच में आत्मीय सम्बन्ध है, जातीय सम्बन्ध तो है ही, नित्य सम्बन्ध तो है ही । हम सदैव उनको अपना मानते रहें और अपना जानते रहें । इससे भी अधिक ऐसा लगे कि वे ही अपने हैं, वे ही अपने हैं और कोई अपना नहीं हैं । तू मेरा है और मैं तेरा हूँ - यही सम्बन्ध अविनाशी है, अमर है । जब मैं शरीर बनता हूँ, तब प्यारे ! तुम विश्वरूप धारण करते हो, जब मैं अहं बनता हूँ, तब तुम परमतत्व बन जाते हो और जब मैं शरणागत हो जाता हूँ, तब तुम सर्वस्व हो जाते हो ।

        तुम्हारी सदा ही जय हो ! जय हो !! तुम्हारी शरणागति सभी को सम्भव हो, इसी सद्भावना के साथ ।।ॐ।। 

- संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)