Thursday, 03 November 2011
(कर्तिक शुक्ल गोपाष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?
उन्होंने (संसार के रचयिता ने) मानव पर कभी शासन नहीं किया । भला बताओ, क्या इन्द्र शासन के लिए कम है ? सुख-भोग के लिए अन्य प्राणी क्या कम हैं ? मानव का निर्माण उन्होंने न तो शासन करने के लिए किया और न भोग कराने के लिए किया । उन्होंने कहा कि तू स्वाधीन होकर, अमर होकर, अजर होकर, अविनाशी होकर एक बार कह दे कि हे प्यारे ! तुम मेरे हो । इसी उद्देश्य के लिए उस अनन्त ने मानव का निर्माण किया है ।
आप कितने भाग्यशील हैं कि आपको मानव-जीवन मिला है ! आप मानव होने के नाते उन्हें अपना कह सकते हैं, उन्हें अपना मान सकते हैं, उनके होकर रह सकते हैं, उनके प्रेम की भूख जगा सकते हैं और बढा सकते हैं, उनकी महिमा गा सकते हैं, गवा सकते हैं, उनका चिन्तन कर सकते हैं, करा सकते हैं । इसलिए महानुभाव ! मानव और अनन्त का सदा से ही नित्य सम्बन्ध है, जातीय सम्बन्ध है और आत्मीय एकता है । हम इस महामन्त्र को कभी न भूलें । किस महामन्त्र को ? मैं सदैव तेरा हूँ, तेरी जाति का हूँ, मेरा-तेरा नित्य सम्बन्ध है, तू ही मेरा अपना है। इस महामन्त्र को हम कभी न भूलें । वे हमें कभी नहीं भूलते । वे बार-बार मानव को यही समझाते रहते हैं कि मैं तुझे प्यारा लगता रहूँ, तू मेरा होकर रह । मेरी नजर में तू-ही-तू और तेरी नजर में मैं-ही-मैं बना रहूँ ।
आप सच मानिए, यह मानव-जीवन भोग-योनी नहीं है । यह जीवन प्रेम-योनी है । इस जीवन में ही मनुष्य को प्रेम की प्राप्ति होती है । और किसी जीवन में प्रेम की प्राप्ति नहीं होती । तो क्या आज हम उनके प्रेम की आवश्यकता अनुभव नहीं कर सकते, उनकी आत्मीयता को नहीं अपना सकते ? अवश्य अपना सकते हैं और उनके प्रेम की आवश्यकता अनुभव कर सकते हैं । यह सामर्थ्य उनकी ही दी हुई है, हमारी उपार्जित नहीं है । सच पूछिए तो दार्शनिकों को दर्शन उन्हींने दिया है, कलाकारों को कला उन्हींने दी है, लेखकों को लिखने की शक्ति उन्हींने दी है । बुद्धिमानों में बुद्धि का चमत्कार उन्हीं का दिया हुआ है, बलवानों में बल उन्होंने ही दिया है, सत्तावालों में सत्ता उन्हीं की दी हुई है।
(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)
आप कितने भाग्यशील हैं कि आपको मानव-जीवन मिला है ! आप मानव होने के नाते उन्हें अपना कह सकते हैं, उन्हें अपना मान सकते हैं, उनके होकर रह सकते हैं, उनके प्रेम की भूख जगा सकते हैं और बढा सकते हैं, उनकी महिमा गा सकते हैं, गवा सकते हैं, उनका चिन्तन कर सकते हैं, करा सकते हैं । इसलिए महानुभाव ! मानव और अनन्त का सदा से ही नित्य सम्बन्ध है, जातीय सम्बन्ध है और आत्मीय एकता है । हम इस महामन्त्र को कभी न भूलें । किस महामन्त्र को ? मैं सदैव तेरा हूँ, तेरी जाति का हूँ, मेरा-तेरा नित्य सम्बन्ध है, तू ही मेरा अपना है। इस महामन्त्र को हम कभी न भूलें । वे हमें कभी नहीं भूलते । वे बार-बार मानव को यही समझाते रहते हैं कि मैं तुझे प्यारा लगता रहूँ, तू मेरा होकर रह । मेरी नजर में तू-ही-तू और तेरी नजर में मैं-ही-मैं बना रहूँ ।
आप सच मानिए, यह मानव-जीवन भोग-योनी नहीं है । यह जीवन प्रेम-योनी है । इस जीवन में ही मनुष्य को प्रेम की प्राप्ति होती है । और किसी जीवन में प्रेम की प्राप्ति नहीं होती । तो क्या आज हम उनके प्रेम की आवश्यकता अनुभव नहीं कर सकते, उनकी आत्मीयता को नहीं अपना सकते ? अवश्य अपना सकते हैं और उनके प्रेम की आवश्यकता अनुभव कर सकते हैं । यह सामर्थ्य उनकी ही दी हुई है, हमारी उपार्जित नहीं है । सच पूछिए तो दार्शनिकों को दर्शन उन्हींने दिया है, कलाकारों को कला उन्हींने दी है, लेखकों को लिखने की शक्ति उन्हींने दी है । बुद्धिमानों में बुद्धि का चमत्कार उन्हीं का दिया हुआ है, बलवानों में बल उन्होंने ही दिया है, सत्तावालों में सत्ता उन्हीं की दी हुई है।
(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)