Sunday, 23 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 23 October 2011
(कर्तिक कृष्ण रम्भा एकादशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)
 
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        प्रभु ने ज्ञान केवल इसलिये दिया है कि मानव स्वाधीन होकर, अजर-अमर होकर सदा-सदा उनको लाड़ लड़ाता रहे, रस देता रहे । उन्हीं का दिया हुआ यह प्रेम है, उससे उनकी नित्य पूजा की जाय, सतत पूजा की जाय और उन्हें रस दिया जाय । वे कैसे हैं ? इसे तो शायद वे भी नहीं जानते । किन्तु उनके सम्बन्ध में जिस किसी ने जो कुछ कहा है, वह कम है । क्यों भाई ? आप स्वयं सोचिए, सब कुछ देकर, सब कुछ लेकर जो अपने आप को न्यौछावर कर सकता है, अपने से अभिन्न कर सकता है, अपने में सदा के लिए स्थान दे सकता है, उसकी महिमा का, उसकी सामर्थ्य का, उसके सौंदर्य का क्या कोई वारापार हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता । पर दुःख की बात तो यह है कि फिर भी क्या वे इतने अपने मालूम होते हैं, जितनी कि उनकी दी हुई वस्तु, सामर्थ्य, योग्यता अपनी मालूम होती है ?

        सच बात तो यह है कि जो उन्हें नहीं मानते हैं, उन्हें भी वे अपने समान बना लेते हैं और इतना छिपकर बनाते हैं, कि उन्हें पता भी नहीं लग पाता कि उन्होंने हमे वह बना दिया, जो वे स्वयं थे। वे क्या थे, वे कहाँ थे, वे क्या नहीं थे, वे कब नहीं थे, वे कहाँ नहीं थे ? वे सदैव थे, सदैव हैं और सभी के हैं । सभी के होते हुए भी उनकी एक महिमा है और वह यह महिमा है कि वे सभी से अतीत भी हैं, सभी के नित्य साथी भी हैं, सभी के दोस्त भी हैं, सभी के प्रिय भी हैं, सभी के मालिक भी हैं और सभी के दास भी । आप कहेंगे कि मालिक दास कैसे हो सकता है ? भाई देखो, उनके दास को जो रस मिलता है, उस रस का भी वे ही पान करते हैं और स्वयं प्रिया होकर अपने आप को भी रस देते हैं ।

        प्रिया भी वे, प्रीतम भी वे, दास भी वे, स्वामी भी वे, शरणागत भी वे और शरण्य भी वे ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)