Saturday, 22 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 22 October 2011
(कर्तिक कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

१.        अपने से भिन्न किसी वस्तु को सुख का साधन समझना परम भूल है क्योंकि इसी भूल के होने पर किसी न किसी प्रकार की वासना तथा मलिन अहंकार अर्थात - "मैं शरीर हूँ" इस भाव की उत्पत्ति होती है जो सर्व दुखों का मूल है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 3)

२.       शरीर और संसार दोनों बीज और वृक्ष के समान हैं । शरीर-भाव रूपी बीज होने पर संसार-रूपी वृक्ष की उत्पत्ति होती है और संसार-रूपी वृक्ष में अनन्त शरीर-भाव रूपी बीज दिखाई देते हैं । वास्तव में दोनों एक हैं; ऐसा मेरा अनुभव है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 3)

३.        जो वस्तु स्वरूप से होती है उसका किसी काल में अन्त नहीं होता । परन्तु संसार का अन्त देखने में आता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि संसार स्वरूप से कोई वस्तु नहीं है । केवल प्रतीति मात्र है । जिस प्रकार दर्पण में मुख नहीं होते हुए भी उसमें प्रतीत होता है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 3)

४.      प्रसन्नचित्त रहने का स्वभाव बनाओ, जो दूसरों को प्रसन्न रखने से होगा । दूसरों की प्रसन्नता सेवा-भाव से होगी । अपने से बड़ों का सम्मान पूर्वक आज्ञापालन, और बराबर वालों से प्रेमपूर्वक मेल-मिलाप, और अपने से छोटों पर दया के भाव रखना ही सच्चा सेवा-भाव है । - संतपत्रावली-1,(Letter No. 4)

५.        दुःख का चिन्तन कभी मत करो । ऐसा करना परम भूल है। दुःख का चिन्तन दूसरों को दुःख देने से होता है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 4)

६.       देखिये, कोई भी मनुष्य जब तक अपने को दुखी नहीं बनाता तब तक दूसरे को दुखी नहीं कर सकता । यानि दूसरों के प्रति दुःख का भाव पैदा होने पर अपने को दुःख होता है - ऐसा मेरा अनुभव है । जिस प्रकार क्रोध आने पर पहले अपने को दुःख होता है, फिर उसको होता है जिस पर क्रोध किया जाता है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 4)