Friday, 27 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 27 April 2012
(वैशाख शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

     बुराई को 'बुराई' जानकर न करना कर्तव्य-विज्ञान का आरम्भ है, किन्तु बुराई की उत्पत्ति ही न हो, यह कर्तव्य-विज्ञान की पूर्णता है ।

      किसी भय से भयभीत होकर बुराई न करना कर्तव्य की ओर अग्रसर होने का सहयोगी उपाय मात्र है, बुराई-रहित होना नहीं है। बुराई-रहित हुए बिना कर्तव्यपरायणता की अभिव्यक्ति ही नहीं होती ।

        बलपूर्वक की हुई भलाई कर्ता में अभिमान को जन्म देती है, जो भारी भूल है । जबतक मानव बलपूर्वक की हुई भलाई के आधार पर जीवित रहता है, तबतक उसमें प्रदोष-दर्शन की रूचि बनी रहती है, जो उसे कर्तव्य-विज्ञान से परिचित नहीं होने देती। इसका परिणाम यह होता है कि वह दूसरों पर शासन करने लगता है, जिसका साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

      शासन के द्वारा समाज में से अकर्तव्य का अन्त नहीं हुआ, यह सभी विचारशीलों का अनुभव है । भूल-जनित वेदना से ही मानव बुराई-रहित होता है । सजगता आने पर ही भूल-जनित वेदना उदित होती है, जो कर्तव्यनिष्ठ बनाने में समर्थ है। अतएव यह निर्विवाद सिद्ध है कि व्यक्ति को समाज के प्रति बुराई नहीं करनी है, अपितु अपने प्रति होनेवाली बुराई का उत्तर भी बुराई से नहीं देना है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 26) ।