Wednesday, 25 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 25 April 2012
(वैशाख शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

        पराधीनता से ही विवश होकर मानव वह करने लगता है, जो नहीं करना चाहिए। उससे उत्तरोत्तर पराधीनता की ही वृद्धि होती है । वास्तव में तो जो नहीं करना चाहिए, उसके न करने में ही मानव की स्वाधीनता है, और इसी प्रयोग से पराधीनता नष्ट होती है । इस दृष्टि से स्वाधीनतापूर्वक ही स्वाधीनता की उपलब्धि होती है ।

      स्वाधीन होने के लिए अपनी ओर न देखना और दूसरों से आशा करना भारी भूल है । 'पर' के द्वारा हमें जो कुछ मिलता है, वह पराधीनता में ही आबद्ध करता है । साधक को जगत् के लिए उपयोगी होना है, जगत् से कुछ लेना नहीं है । भला पर-प्रकाश्य, परिवर्तनशील, उत्पत्ति-विनाश-युक्त जगत् से आशा की जाय! वह बेचारा दे ही क्या सकता है ?

        जब साधक किसी को बुरा नहीं समझता, किसी की बुराई नहीं चाहता और किसी भी भय तथा प्रलोभन से बुराई करने के लिए तत्पर नहीं होता, तब उसका जीवन जगत् के लिए अनुपयोगी नहीं रहता, अपितु उपयोगी हो जाता है । यह मंगलमय विधान है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 34) ।