Sunday, 19 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 19 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
रोग - अभिशाप है या वरदान ?

६.        रोग की चिन्ता रोग से भी अधिक रोग है । अतः रोग की चिन्ता न करना परम औषधि है। रोग शरीर की वास्तविकता समझाने के लिए आता है। साधारण प्राणी शरीर की सुन्दरता में आसक्त होकर रोग से डरते हैं। वास्तव में रोग आरोग्य की अपेक्षा जीवन की अधिक आवश्यक वस्तु है । क्योंकि आरोग्य से प्रमाद तथा रोग से जागृति होती है। विचारशील को रोग से न डरकर उसका सदुपयोग करना चाहिए। - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १०४ (Letter No. 104)

७.        रोग का वास्तविक हेतु केवल राग है क्योंकि राग से व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम होना स्वाभाविक है और व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम से प्राण-शक्ति का क्षीण होना अनिवार्य है। प्राण-शक्ति के दुर्बल होने पर अनेकों रोग स्वतः आ जाते हैं। - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

८.        कुछ रोग अदृश्य की मलिनता अर्थात् पूर्व कर्म के फल स्वरूप होते हैं । उनकी निवृति तप, त्याग तथा पुण्यकर्म से अथवा भोगने से ही होती है । असंयम द्वारा उत्पन्न रोग यथेष्ट पथ्य अर्थात् आहार-विहार के ठीक होने से मिट जाते हैं और वीतराग होने पर राग से उत्पन्न होनेवाले रोग भी मिट जाते हैं। - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

९.         मेरे विश्वास के अनुसार रोग राग का परिणाम है । राग का अन्त करने के लिए ही रोग उत्पन्न हुआ है । राग का अन्त कर रोग स्वतः नाश हो जाएगा और फिर बुलाने पर भी न आयेगा। - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १२१ (Letter No. 121)

१०.         शरणागत साधक प्रत्येक घटना में अपने परम प्रेमास्पद, परम सुह्रदय की अनुपम लीला का दर्शन करते हैं। रोग के रूप में कोई और नहीं है, वे ही देहाभिमान गलाने के लिए आये हैं । तुम किसी भी काल में शरीर नहीं हो । सदैव सर्वत्र अपने शरणागतवत्सल प्यारे प्रभु को देखो । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १४२ (Letter No. 142)

११.         सच तो यह है कि शरीर के रहते हुए ही विचारपूर्वक शरीर से असंग होना अनिवार्य है और यही वास्तविक आरोग्य है। शरीर से किसी काल में जातीय सम्बन्ध नहीं है, केवल सेवा-कार्य के लिए काल्पनिक सम्बन्ध है । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १५९ (Letter No. 159)

१२.         जिस प्रकार मछलियों के उछलने से समुद्र को खेद नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के बनने-बिगड़ने से विचारशील को क्षोभ नहीं होता । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ ४१ (Letter No. 41) (Please read separate chapter on 'Roag' in 'Krantikari Santvani' book )

(शेष आगेके ब्लाग में)