Monday, 20 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 20 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी, महाशिवरात्रिव्रत, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
रोग - अभिशाप है या वरदान?

१३.         यह तो बताओ कि जन्म होते ही, मृत्यु आरम्भ नहीं हो जाती ? प्रत्येक वस्तु निरन्तर काल रूप अग्नि में जल रही है । विवेक की दृष्टि में तो केवल मृत्यु का ज्ञान और अमरत्व की माँग है । अर्थात मृत्यु से अमरत्व की ओर जाना ही प्राणी का परम पुरुषार्थ है । - संतपत्रावली-३, पत्र सं॰ ५० (Letter No. 50)

१४.         आजकल गृह अस्पताल बन गया है । तुम्हारा पवित्र शरीर भी पलंग पर पड़ा है । रोग भगवान भोग तथा शरीर की वास्तविकता का ज्ञान कराने के लिए आते हैं । अतः आये हुए रोग का अभिवादन करो और अपने को शरीर से असंग कर लो । - संतपत्रावली-३, पत्र सं॰ ५८ (Letter No. 58)

१५.         प्राप्त का अनादर और अप्राप्त का चिन्तन, अप्राप्त की रूचि और प्राप्त से अरुचि - यही मानसिक रोग है । - (साधन त्रिवेणी)

१६.         शारीरिक बल का आश्रय तोड़ने के लिए रोग आया है। कुछ रोग अभिमान बढ़ जाने पर भी होते हैं । किसी साधक को ऐसा छिपा हुआ अभिमान होता है कि जिसकी निवृति कराने के लिए रोग आता है । उनके सिखाने के अनेक ढंग हैं । भय से भी रोग हो जाते हैं । भय और अभिमान का अन्त हो जाने पर कुछ रोग स्वतः नाश हो जाते हैं । निश्चिन्तता तथा निर्भयता आने से प्राणशक्ति सबल होती है जो रोग मिटाने में समर्थ है । उसके लिए हरि-आश्रय तथा विश्राम ही अचूक उपाय है । - (पाथेय)

१७.         जो साधन-सामग्री है, उसके द्वारा साधक किसी प्रकार का सुख-सम्पादन न कर सके, इसी कारण वे रोग के स्वरूप में प्रकट होते हैं । पर साधक यह रहस्य नहीं जान पाता कि मेरे ही प्यारे रोग के वेष में आए हैं । रोग-भोग के राग का अन्त कर अपने-आप चला जाएगा ।  (पाथेय)

१८.         शरीर का पूर्ण स्वस्थ होना शरीर के स्वभाव के विपरीत है; क्योंकि जिस प्रकार दीन और रात दोनों से ही काल की सुन्दरता होती है, उसी प्रकार रोग और आरोग्य दोनों से ही वास्तविकता प्रकाशित होती है ।  - (संत समागम-१)

१९.         कभी-कभी जब प्राणी प्रमादवश विश्वनाथ की वस्तु को अपनी समझने लगता है, तब उसकी आसक्ति मिटाने के लिए 'रोग भगवान' आते हैं । शरीर विश्व की वस्तु है और विश्व विश्वनाथ का है, उसको अपना मत समझो । रोग से 'अशुभ कर्म के फल' का और तप से 'अशुभ कर्म' का अन्त होता है । (संत समागम-२) (Please read separate chapter on 'Roag' in 'Krantikari Santvani' book )