Saturday, 28 January 2012
(माघ शुक्ल वसंतपंचमी, सरस्वती-पूजन, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
जीवन का सत्य
देखो आफिस की पराधीनता थोड़ी देर की छह घण्टे की, तो अठ्ठारह घण्टे तो आप स्वाधीन हो । पराधीन कौन होता है ? जिसे अपने में यह अनुभव है कि मेरा कुछ है वह सबसे बड़ा पराधीन है ? और मुझे कुछ चाहिए वह उससे बड़ा पराधीन । जो निर्भय और निष्काम है वही स्वाधीन होता है। परिस्थिति में सब पराधीन रहते हैं ।
आप विचार करके देखो - शरीर संसार की शक्तियों के अधीन है । आफिस का काम तो आप आफिस के समय पर ठीक कर दो, पूरी शक्ति लगा दो, आदरपूर्वक कर दो, पवित्र भाव से कर दो । इस प्रकार पराधीनता पर-सेवा में व्यय कर दो। मुश्किल तो तब है न, जब आपके कार्य का कोई लक्ष्य न हो ।
आप इस दृष्टि से ठीक-ठीक कर्तव्यपालन कीजिए तो मुश्किल बहुत आसान हो जाएगी । हानि बिना पहुँचाए कोई काम करोगे तो वह सेवा हो जाएगी ।
-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 16) ।
Truth of life
(Continuance from the last blog-post)
Look! You are accountable, and under subjection, to the office for sometime- for six hours but you are free for eighteen hours. Who falls in subjection? The worst subjugation is the sense that I own something. He is the most tightly fastened to the bondage. The feeling that I want something is a greater bondage than that. Only those who are fearless and desireless become free. Otherwise all are in thrall of circumstances.
Deliberate and see: the body exists under the forces of the world. Complete the office works on time, properly, applying total energy to it, with reverence and genuine feeling. Thus expand obligation to duty through service to the other. Problem arises only when there is no goal of the work done.
If you discharge your duty righteously in this way, the problem will be considerably eased off. If you do the work avoiding harm to anyone, it will be transformed into service.
-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 25)