Friday, 27 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Friday, 27 January 2012
(माघ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जीवन का सत्य

        काम तो होता ही पराश्रय और परिश्रम से है । काम माने पराश्रय और परिश्रम । पराश्रय और परिश्रम का स्थान है पर-सेवा में यानि शरीर की सेवा में, परिवार की सेवा में, समाज की सेवा में, विश्व की सेवा में । बिना दूसरों को हानि पहुँचाए जो कार्य है वह सेवा है । और दूसरों को हानि पहुँचाकर जो कार्य है वही भोग है । पर-सेवा के लिए आप स्वाधीन हैं, भोग के लिए नहीं ।

        पराश्रय और परिश्रम का उपयोग है पर-सेवा में । पर-सेवा में आप भलाई चाहे जिस के साथ करें लेकिन बुराई आप किसी के साथ न करें । तो बुराई न करना यह विश्व की सेवा है, भलाई करना यह परिवार, समाज और देश की सेवा है, अचाह होना अपनी सेवा है और प्रेमी होना प्रभु की सेवा है ।

        तो सेवा आप चाहे जिसकी करें । अभी प्रभु की सेवा करने की फुर्सत न हो, तो कोई चिन्ता की बात नहीं है, अपनी सेवा करें और अपनी सेवा की फुर्सत न हो, तो शरीर की, समाज की और परिवार की सेवा करें परन्तु हानि तो किसी को न पहुँचाएँ ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 15-16) । 

Truth of life

(Continuance from the last blog-post)

        Work is bound to happen with dependence on the other involving effort, labor. Work means depending on other, labor, exertion. Labor and dependence on the other are apposite to the service of the other-service to the body, service to family, society and world. Any work that doesn’t harm the other is service. Any work done by harming other is self-indulgence. You are free to serve the other, but not to yield to pleasure of self-indulgence.

        Labor, exertion and dependence on the other should be put to good use for serving the other. While serving the other you may do good to anyone whoever but don’t be evildoing to anyone. Doing no evil, offending none is service to the world; doing good is service to the family, society and the country; to be desireless is the service to oneself and to transform oneself into a lover of God is service to the Lord. 

        So, you can serve anyone - yourself, your family, society, country and the world. Don’t worry if you have no space of leisure to serve God forthwith, serve yourself with desirelessness. If you are unable to serve your own self for want of leisure, serve the body for its upkeep, the society and the family for their well-being, but don’t harm anyone.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 24-25)