Monday, 16 January 2012
(माघ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी
प्रश्न - मार खाना भी उदारता है क्या ?
उत्तर - कमजोर हमेशा पिटता रहता है । उदारता आत्मीय सम्बन्ध से होती है। उदारता माने, विश्व-जीवन से एकता । बलवान बनिए । करुणित होइए ।
प्रश्न - हनुमानजी के चित्र में, हृदय में रामजी की फोटो बनी है। क्या यह सही है ?
उत्तर - अरे ! भाव पर फोटो बनी है, चित्र में नहीं ।
दिल का हुजरा साफ कर, आनेवाले के लिए ।
ख्याल गैरों का उठा, उसे बैठाने के लिए ।।
पहले दिल की सफाई करनी है ।
प्रश्न - प्राण क्या है ?
उत्तर - प्राण कहते हैं, जिससे शरीर काम करे । प्राण जीवनी-शक्ति है ।
प्रश्न - स्वामीजी ! साधन करने में स्वस्थ शरीर की भी जरूरत है क्या ?
उत्तर - साधन में वास्तव में तो स्वस्थ शरीर की जरूरत नहीं है। शरीर का स्वस्थ अथवा रोगी रहना, यह तो एक परिस्थिति है। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, साधन-सामग्री से भिन्न कुछ है ही नहीं । शरीर चाहे स्वस्थ रहे, अथवा रोगी । साधक इसे महत्व न दे। फिर भी यदि शरीर स्वस्थ रहे, तो अच्छी बात है । साधन का निर्माण तो सत्संग से होता है । सत्संग स्वधर्म है, शरीर धर्म नहीं। उसमें तो प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करना है ।
प्रश्न - प्रत्यक्ष जगत् की तरह भगवत् सत्ता पर किस प्रकार विश्वास हो ? इसका कोई सुगम उपाय बताने की कृपा करें ।
उत्तर - इंद्रियों के ज्ञान में सद्भाव एवं विषयों की वासना तथा शरीर में अहं-बुद्धि, इन तीनों कारणों से जगत् की सत्ता प्रत्यक्ष प्रतीत होती है । इन तीनों कारणों के मिट जाने पर भगवत् सत्ता पर विश्वास हो जाता है ।
प्रश्न - मुझे साधन करते हुए एक अर्सा हो गया, किन्तु अभी तक सफलता के दर्शन नहीं हुए, क्या कारण है ?
उत्तर - जो मनुष्य असाधन को बनाए रखकर साधन करते हैं, उनको बहुत दिनों तक साधन करने पर भी वर्तमान में सिद्धि नहीं मिल सकती ।
जो मनुष्य वस्तु और व्यक्ति का आश्रय लेकर साधन करना चाहते हैं, उनको भी सफलता नहीं मिलती । इसलिए भगवान् का आश्रय लेकर साधन करो, सफलता अवश्य मिलेगी।
जो साधक देशकाल, परिस्थिति, वस्तु व व्यक्ति का आश्रय छोड़कर साधन करता है, उसको शीघ्र सफलता मिलती है।
'स्व' में सन्तुष्ट रहो, मानवता को महत्व दो और प्रभु पर विश्वास करो - यही साधन है और इसी का नाम जीवन है। जिसके जीवन में ये बातें आ जाती हैं, उसको सफलता अवश्य मिलती है ।
-(शेष आगेके ब्लागमें) 'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, (Page No. 18-20) ।