Monday, 2 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 02 January 2012
(पौष शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        हमने किसी पढ़े-लिखे के मुँह से सुना था कि अमेरिका में दो सौ जहाज हर समय देश पर घूमते रहते हैं । इस भय के मारे कि कहीं कोई देश हम पर आक्रमण न कर दे । यह भी कोई जीवन है, भय पीछा छोड़ता ही नहीं, अभय तुम हुए ही नहीं। जब तुम ही अभय नहीं हुए तो तुम्हारी सहायता हमें अभय कर देगी ? बिल्कुल नहीं कर देगी ।

        हे मानव, तुम मानव होने के नाते सोचो । अपने जीवन में क्या क्रान्ति लाना है ? तो यह क्रान्ति लाना है कि मैं उदार होकर संसार में रहूँगा, मैं स्वाधीन होकर रहूँगा, मैं प्रेमी होकर रहूँगा। और अगर आप उदार होकर रहना पसन्द करोगे, अगर आप स्वाधीन होकर रहना पसन्द करोगे, आप प्रेमी होकर रहना पसन्द करोगे तो आप सच मानिए, आपके जीवन में गरीबी नहीं रहेगी, आपके जीवन में अभाव नहीं रहेगा और आपके जीवन में नीरसता नहीं रहेगी । आपकी जितनी समस्याएँ हैं, सब हल हो जाएँगी ।

        लेकिन अगर आप यह सोचते हैं कि हम तो ऐसा तरीका सोच रहे हैं कि सारे संसार की सम्पत्ति हमारी हो जाय । सारे संसार की सम्पत्ति तो व्यक्तिगत हो नहीं जाएगी, लोभ के कारण जीवन में भयंकर दरिद्रता आ जाएगी । अगर आप सोचते हैं कि हमारा जीवन सदा बना रहे, तो मोह के कारण आप भय में आबद्ध हो जाएँगे । आप अभय नहीं हो जाएँगे । अमर जीवन आपको नहीं मिल जाएगा ।

        इसलिए भाई जो मिला हुआ सा लगता है, वह वास्तव में मिला हुआ है नहीं । मिला हुआ किसे कहते हैं ? अपनी भाषा में कहें तो जो अलग न हो । जो अलग हो जाय, वह मिला हुआ कैसा?  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 17-18)