Tuesday, 22 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 22 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
  
दिव्य सन्देश 
श्रीवृन्दावन धाम
11-11-1973
प्राणप्यारे के प्रिय जनों !
        सविनय सेवा में निवेदन है कि जो सदैव होने से अभी और सभी का होने से अपना और सर्वत्र होने से अपने में मौजूद है, वही समर्थ है, वही सर्वेश्वर है और वही प्रेमियों का प्राणेश्वर है । उसी को साधन-तत्व अर्थात् गुरु-तत्व एवं साध्य-तत्व भी कहते हैं । वह गुरु-तत्व साध्य का ही प्रतिरूप है, साध्य की कृपामूर्ति ही गुरुमूर्ति है । यह प्रेमीजनों का अनुभव है।   

        साधक की गुरु-तत्व से ही अभिन्नता होती है, और गुरु-तत्व सर्वदा ही साध्य-तत्व से अभिन्न है । निज-ज्ञान गुरु के प्रकाश में अनुभव करो कि प्रतीति का प्रकाशक और उत्पत्ति का आधार जो है, वही अनादि, अनन्त, अविनाशी तत्व है । उसी से साधकों की जातीय एकता तथा नित्य सम्बन्ध है और वे ही सबके अपने हैं । यह वास्तविकता सद्गुरुवाणी के द्वारा ही स्वीकार की जाती है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृति स्वतः होने लगती है । अतः जिन भागवतजनों ने गुरुमुख द्वारा उसे, जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि के द्वारा देखा नहीं, अपितु गुरुवाणी के द्वारा स्वीकार किया है, वे धन्य हैं ।

        गुरु-तत्व के बिना अनन्त अगोचर प्राणेश्वर से आत्मीय सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । इस दृष्टि से गुरु-तत्व ही एकमात्र श्रीहरि से मिलाने में हेतु है । ज्ञान का प्रकाश दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता है और साधक के सर्व दुखों की निवृति हो सकती है; किन्तु नित नव-रस की उपलब्धि के लिए तो आस्था, श्रद्धा, विश्वाशपूर्वक गुरुवाणी द्वारा ही उसे स्वीकार किया जाता है, जो सभी का सब कुछ है । आत्मीय सम्बन्ध ही एकमात्र अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति में हेतु है । यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं, जिन्होंने सद्गुरुवाणी को अपनाया है । गुरु-तत्व की प्राप्ति होने पर ही भगवत्-तत्व की प्राप्ति होती है । यह भगवत्प्राप्त साधकों का अनुभव है ।

        निज-ज्ञान के आदर से साधक चिर-शान्ति, जीवन-मुक्ति प्राप्त कर सकता है । परन्तु भक्ति-तत्व की प्राप्ति में तो एकमात्र सद्गुरुवाणी में अविचल आस्था, श्रद्धा, विश्वास ही अचूक उपाय है । यह जीवन का सत्य है । हम सभी सद्गुरु जयन्ती महोत्सव मना रहे हैं । हमें अपने आपके सम्बन्ध में सजीवता लानी चाहिए । वह तभी सम्भव होगी, जब हम अपने में अपने परम प्रेमास्पद को स्वीकार कर निश्चिन्त तथा निर्भय हो जायें। सर्व-समर्थ प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से अपने विश्वासी जनों को अपनी आत्मीयता प्रदान करें, जिससे वे पावन प्रीति पाकर कृत-कृत्य हो जायें ! इसी सद्भावना के साथ,
अकिंचन
शरणानन्द
- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 11-12)