Saturday, 29 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 29 October 2011
(कर्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)

प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        अनन्त की प्रियता अनन्त है, नित्य की प्रियता नित्य है, चिन्मय की प्रियता चिन्मय है । वह प्रियता जड़ नहीं है, क्रिया नहीं है, अभ्यास नहीं है । यह उनका विश्वास है । उनका विश्वास ही उनकी प्राप्ति का अन्तिम अचूक उपाय है । और कोई उपाय है ही नहीं । उनके विश्वास से ही उनको पाया है, और किसी प्रकार नहीं। महाराज ! विचारकों ने अपने को पाया है, अमरत्व को पाया है, जीवन-मुक्ति को पाया है । पर उनके विश्वासियों ने उनको पाया, उनकी प्रियता को पाया, उनकी आत्मीयता को पाया । प्रभु-विश्वास ही गुरुतत्व है, और कोई गुरुतत्व नहीं है । प्रभु-विश्वास ही प्रेमियों का गुरुतत्व है । उनका विश्वास उनका ही दिया हुआ है, यह अपना उपार्जित नहीं है ।

        उपार्जन के लिए तो उन्होंने सामर्थ्य दी है और ज्ञान का प्रकाश दिया है । उनकी दी हुई सामर्थ्य के सदुपयोग से मानव सेवक कहलाया है, उदार कहलाया है, और न जानें, संसार ने उसको क्या-क्या कहा है । किन्तु उनके विश्वास ने उनकी आत्मीयता प्रदान की है, प्रियता प्रदान की है । उनके विश्वास के बल पर अन्य सभी विश्वासों को मिटा दो, त्याग दो । उनके सम्बन्ध के लिए अन्य सभी सम्बन्धों को अपने भीतर से निकाल दो । अन्य कोई सम्बन्ध नहीं है, कोई विश्वास नहीं है । उनका विश्वास ही विश्वास है, उनका सम्बन्ध ही सम्बन्ध है । उनकी प्रियता ही जीवन है । और कोई जीवन नहीं है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)