Friday, 28 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 28 October 2011
(कर्तिक शुक्ल द्वितीया, भैयादूज, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        उनकी (संसार के रचयिता की) प्रियता उनसे माँगो, उनकी आत्मीयता उनसे माँगो, उनकी महिमा उनसे माँगो । और कुछ माँगने योग्य है ही नहीं । क्यों नहीं है ? आप ही सोचिए कि उन्होंने अविनाशी जीवन की उपलब्धि के लिए ज्ञान का प्रकाश दिया है और विश्व-जीवन में आदर पाने के लिए उदारता का रस तथा करुणा का रस उन्होंने दिया है । अब और क्या चाहिए ? जहाँ आप रहते हैं, वहाँ आदर ही तो चाहते हैं, सम्मान ही तो चाहते हैं । हम क्या बताएँ ? उनकी दी हुई योग्यता का जब मनुष प्रकाशन करता है, तो उसमें अपना नाम लिखता है और यह चाहता है कि लोग यह समझते रहें कि इसका लेखक अमुक है । क्या सचमुच कोई लेखक, लेखक है; कोई वक्ता, वक्ता है; कोई दाता, दाता है ? वे ही लेखक हैं, वे ही वक्ता हैं, वे ही दाता हैं । किन्तु अपने को कितना छिपाते हैं ! क्या कहीं मालूम होता है कि वे बोल रहे हैं ?
 
        लोग सोचते हैं कि शरणानन्द बोल रहा है, बड़ा अच्छा बोलता है, बड़ा ठीक बोलता है, युक्तियुक्त बोलता है । लेकिन सच बात तो यह है कि भला वे वक्ता न हों और कोई वक्ता हो जाए ? वे लेखक न हों, और कोई लेखक हो जाए ? वे कलाकार न हों, और कोई कलाकार हो जाए, वे दार्शनिक न हों, और कोई दार्शनिक हो जाए ? नहीं हो सकता, नहीं हो सकता । सभी के सब-कुछ वे ही हैं ।
 
         आज हम सब उनका उत्सव मना रहे हैं, उत्साहित हो रहे हैं और उनकी करुणा, उनकी उदारता, उनकी आत्मीयता का पान कर रहे हैं । वे धन्य हैं ! वे धन्य हैं !! उनके लिए क्या कहा जाए ! वे अपनी प्रियता की भूख बढ़ाते रहें ! मैं उनके प्रेम की भूख से आकुल रहूँ, व्याकुल रहूँ, पीड़ित रहूँ - यही पुनः-पुनः माँग होती रहे, उनकी प्रियता उत्तरोत्तर बढती रहे ! उनके दिए हुए बल के द्वारा उनकी पूजा होती रहे, उनकी दी हुई आत्मीयता से उनकी स्मृति होती रहे और उत्तरोत्तर उनकी प्रियता बढ़ती रहे !

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)