Wednesday 25 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 25 September 2013  
(आश्विन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सुन्दर समाज का निर्माण

        कर्त्तव्य पर ध्यान न देकर अधिकार-प्राप्ति के लिए मर मिटना गुण के रूप में दोष है  इस अमानवतापूर्ण दोष से बचने के लिए हमें निरन्तर सतर्क और प्रयत्नशील रहना चाहिए।  कर्तव्यपरायणता आ जाने पर अधिकार बिना माँगे ही आ जाएगा । यदि किसी की निर्बलता या उदारता से कर्त्तव्य के बिना अधिकार मिल भी गया, तो हम उसे सुरक्षित न रख सकेंगे, यह निर्विवाद सत्य है । अधिकार वही सुरक्षित रहता है, जो कर्तव्यपरायणता से स्वत: प्राप्त होता है । जब वीतराग पुरुषों के द्वारा तथा अपने अनुभव से यह सिद्ध हो गया है कि मानवता अपना लेने पर ही हम सुन्दर बनेंगे और हमारी सुन्दरता से ही सुन्दर समाज का निर्माण होगा; तब यह प्रश्न स्वत: उत्पन्न होता है कि मानव में मानवता कसे आये ? उसके लिए यह कहना होगा कि हमारा कर्म भाव-रहित न हो और भाव विवेक-शून्य न हो, अर्थात् हमारी भावनाएँ निज-विवेक से प्रकाशित रहें और हमारा कर्म भाव से प्रभावित हो ।

        यह नियम है कि कर्म में प्रवृत्ति जिस भाव से होती है, कर्म के अन्त में कर्त्ता उसी भाव में विलीन हो जाता है । और, फिर भाव विवेक से स्वत: अभेद हो जाता है, अर्थात् हमारा जीवन बन जाता है और फिर अविवेक तथा इसके कार्यरूप अनेक विकार सदा के लिए ही मिट जाते हैं । यही वास्तव में मानव-जीवन है, क्योंकि निर्विकार जीवन ही मानव-जीवन है । इस पर यदि विचार करें, तो एक बात बडे महत्व की प्रतीत होती है कि जब हमें अपने साथी का कोई कार्य ऐसा प्रतीत हो, जो हमें अपने लिए प्रतिकूल दिखाई देता हो अथवा अनुचित प्रतीत होता हो, तो हम अपने ऐसे ज्ञान के निर्णय को ही सत्य न मान लें, अपितु हम अपने साथी से पूछें कि भाई, यह बात जो तुम कह रहे हो, किस भावना से कह रहे हो; और जिस भावना से तुम कह रहे हो वह किस विवेक पर आधारित है ? ऐसा पहले हम अपने साथी से पता लगाने का प्रयत्न करें ।

        अगर वह वास्तव में आपका साथी है, तो बतायेगा कि उसने आपके साथ जो कटुता का व्यवहार किया वह अमुक भावना से किया और यदि उस साथी ने सचमुच किसी अशुद्ध भाव से व्यवहार किया होगा, तो या तो वह चुप हो जाएगा या लज्जित हो जाएगा अथवा अपनी बात बदल देगा । वह अपनी कटुता को आपके सामने प्रकट करने में असमर्थ हो जाएगा और आप उसके ही द्वारा उसके सत्य को जान लेंगे । परन्तु हम अपने साथी को इतना अवसर ही कहाँ देते हैं ? 

        हमसे प्राय: ऐसी भूल हो ही जाया करती है कि हम अपने विवेक के निर्णय पर ही दूसरे को असत्य जानकर बिगड़ने लगते हैं, क्रोध करने लगते हैं, और जो कहना चाहिए वह भी तथा जो नहीं कहना चाहिए वह भी कहने लगते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि हमारा वह साथी हमारे मोहवश, भयवश अथवा अपनी निर्बलता के कारण थोड़ी देर के लिये भले ही चुप हो जाय और हमको राजी करने के लिए जो हम चाहते हों, वही कहने या करने लग जाय, परन्तु उसके मन में हमारे साथ सच्ची एकता न होगी। यह नियम है कि यदि मन में सच्ची एकता न होगी, तो वह एकता कालान्तर में मिट जायगी और आज जो हम एक साथ बैठकर परस्पर में सत्य को जानने का प्रयत्न कर रहे हैं, सम्भव है कि कल अपने-अपने पक्ष के अभिमान को लेकर आपस में संघर्ष करने लगें ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 23-25) ।