Monday 16 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 16 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

        दोष उसे नहीं कहते जो बिना जाने किया जाए । किये हुए दोषों को दबाने के लिये जो प्रयास है, वही गुण का अभिमान है । विवेकपूर्वक दोष का त्याग ही की हुई भूल का प्रायश्चित्त है, गुण का अभिमान नहीं। जब हमने मिथ्या बोल कर, मिथ्या बोलने को न दोहराने का प्रायश्चित्त किया, तो फिर 'मैं सत्यवादी हूँ' ऐसे अभिमान के लिए कोई स्थान ही नहीं है । परन्तु हम अभिमान कर बैठे, जिसने सत्यवादी तो बना दिया, परन्तु भेद उत्पन्न करके नये दोषों की उत्पत्ति कर दी । यदि आज हमारे जीवन में गुणों का अभिमान न रहे, तो हम परस्पर विचार-भेद, वर्ग-भेद, सम्प्रदाय-भेद आदि के होने से प्रीति-भेद अथवा लक्ष्य-भेद को न अपनाएँ, जो वास्तव में अमानवता है । मानवता प्रीति भेद को समाप्त कर बाह्य और अन्तर के संघर्ष को भी खा लेती है ।

        अब रही बात दुःख के सदुपयोग की । दुःख का सदुपयोग विरक्ति है । विरक्ति का अर्थ रूठकर अकेले बैठ जाना नहीं है, और न केवल अनिकेत (गृहहीन) हो जाना और न नंगा हो जाना है। यह सब तो विरक्त का बाह्य श्रृंगार-मात्र है । विरक्ति का वास्तविक अर्थ है, इन्द्रियों के विषयों से अरुचि अर्थात् भोग की अपेक्षा भोक्ता का मूल्य बढ़ा लेना । भोक्ता भोग के बिना भी सहर्ष रह सके, यही उसका मूल्य बढ़ जाना है । अब प्रश्न यह है कि भोग भोक्ता को प्रकाशित करता है या भोक्ता भोग को? यह तो मानना ही होगा कि भोक्ता जिस भोग को अपना कहता है, उस भोग ने भोक्ता को कभी अपना नहीं कहा, और न भोक्ता की सत्ता के बिना भोग प्रकाशित हुआ । भोग और भोगने के साधन इन दोनों को भोक्ता ही प्रकाशित करता है । जैसे, देखने की रूचि ही नेत्र तथा रूप को प्रकाशित करती है । नेत्र में देखने की क्रिया है, देखने की रुचि नहीं । देखने की रुचि तो उसमें है जो नेत्र को अपना मानता है अथवा यों कहो कि, जो उसके अभिमान को स्वीकार करता है ।

        यदि भोक्ता भोग की रुचि का त्याग कर दे, तो सभी भोगों और भोग के साधनों का कोई महत्व नहीं रह जाता । इतना ही नहीं, वे अपनी-अपनी सत्ता को त्याग कर भोक्ता में विलीन हो जाते हैं । फिर जो भोग का प्रकाशक था, उसो की सत्ता शेष रह जाती है । भोग और भोगने के साधनों का अस्तित्व नहीं रहता और न किसी प्रकार की विषमता शेष रहती है । उसके मिटते ही चिर-शान्ति तथा स्थायी प्रसन्नता आ जाती है, जो दु:ख को खाकर अनन्त चिन्मय जीवन से अभिन्न कर देती है । इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि सुख-दुःख का सदुपयोग मानवता है, जो हमें सुख-दुःख से मुक्त करने में समर्थ है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 8-10) ।