Wednesday 28 August 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 28 August 2013  
(भाद्रपद कृष्ण-जन्माष्टमी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
परिस्थिति का सदुपयोग

        भक्त तथा जिज्ञासु वर्ण-आश्रम में होते हुए भी वास्तव में वर्ण-आश्रम से प्रतीत ही होते हैं, क्योंकि निर्दोष-तत्त्व तथा भगवान् सभी के हैं । उनकी आवश्यकता सर्वकाल में सभी को होती है। जिसकी आवश्यकता सर्वकाल में है, उसकी प्राप्ति का साधन भी सर्वकाल में होना चाहिए । अत: भक्त परिस्थिति का सदुपयोग करने पर अपने अभीष्ट को प्राप्त होते हैं, यह निर्विवाद सत्य है। 

        प्रेमी तथा जिज्ञासु किसी भी काल में अपने लक्ष्य से विभक्त नहीं होते, किन्तु उनके तथा उनके लक्ष्य के बीच में परिस्थिति-रूप हल्का-सा पर्दा रहता है । उस पर्दे से प्रीति जाग्रत होती है, क्योंकि प्रीति को जाग्रत करने के लिए किसी से किसी प्रकार का वियोग भी अनिवार्य है । अत: भक्त के लिए 'परिस्थिति' प्रेमपात्र की प्रीति जाग्रत करने का और जिज्ञासु के लिए जिज्ञासा प्रबल करने का साधन हो जाती है; क्योंकि परिस्थिति का दोष निर्दोषता की आवश्यकता जाग्रत करने में समर्थ है ।

        यद्यपि प्रत्येक परिस्थिति स्वरूप से अपूर्ण तथा सदोष होती है, किन्तु जिज्ञासु के लिए वह मार्ग के कंटक के समान और भक्त के लिए प्रेमपात्र के पत्र अर्थात् सन्देश के समान होती है। अन्तर केवल इतना होता है कि जिज्ञासु दोषयुक्त परिस्थिति को अनुभूति के आधार पर वीरता और गम्भीरतापूर्वक त्याग कर निर्दोष-तत्व से अभिन्न हो जाता है तथा भक्त परिस्थिति को प्रेमपात्र का संदेश समझ प्रीति जाग्रत कर प्रेमपात्र की कृपा से अभिन्न हो जाता है । इसमें अन्तर इतना ही है कि जिज्ञासु को तो परिस्थिति का त्याग करना पड़ता है किन्तु भक्त का परिस्थिति त्याग करती है; क्योंकि भक्त में प्रेमपात्र की प्रीति के अतिरिक्त कुछ भी करने की शक्ति नहीं रहती । जिज्ञासु पर्दा हटाकर अपने प्रेमपात्र अर्थात् निर्दोष-तत्व पर अपने को न्योछावर करता है । भक्त में स्वयं पर्दा हटाने की शक्ति नहीं होती । अत: भगवान् विवश होकर स्वयं पर्दा हटा कर अपने को भक्त पर न्योछावर करते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 47-48) ।