Friday 12 April 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 12 April 2013  
(चैत्र शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-2070, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

       विचार-दृष्टि से देखिए कि प्रत्येक प्रवृति की निवृति बिना ही प्रयत्न स्वतः होती है। अतः स्वयं आने वाली निवृति, जो प्रवृति की अपेक्षा सबल एवं स्वतन्त्र है, अनित्य जीवन जीवन की वस्तु नहीं हो सकती । शक्तिहीन होने पर अनित्य जीवन शक्ति-संचय के लिए कुछ कर नहीं सकता । अतः शक्ति भी अनित्य जीवन की वस्तु नहीं हो सकती; क्योंकि निवृति-काल में किसी प्रकार प्रवृति शेष नहीं रहती । यह हमको अनेक घटनाओं से अनुभव होता है कि निवृति के बिना पुनः प्रवृति के लिए शक्ति नहीं आती । बेचारा अनित्य जीवन तो केवल शक्ति का दुरुपयोग ही करता है और कुछ नहीं कर पाता, क्योंकि बेचारे को विषय-सत्ता भी प्राप्त नहीं होती। विषयों की प्रवृति विषयों से दूरी सिद्ध करती है, क्योंकि प्रवृति एक प्रकार की क्रिया है । क्रिया लक्ष्य के अप्राप्ति-काल में ही होती है ।

        बेचारा अनित्य जीवन, न मालूम कब से विषयों की ओर दौड़ता है, परन्तु पकड़ नहीं पाता ! जब हम पूछते हैं कि क्यों दौड़ते हो ? तो हमको यही उत्तर मिलता है कि दौड़ने की आदत पड़ गई है । 'आदत' अभ्यास-जन्य आसक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अभ्यास का जन्म अस्वाभाविक माने हुए अहंभाव से होता है । अस्वाभाविक अहंभाव का अन्त कर देने पर अभ्यास-जन्य आसक्ति समूल नष्ट हो जाती है; क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता । अभ्यास-जन्य आसक्ति अस्वाभाविक सीमित अहंभाव में अर्थात् अनित्य जीवन में सद्भाव के सिवाय और कुछ नहीं है, क्योंकि यदि परिवर्तन में अपरिवर्तन-भाव न हो, तो आसक्ति कदापि नहीं हो सकती । सीमित अहंभाव से कामनाओं का जन्म होता है ।

        जिस प्रकार बीज में अनन्त वृक्ष छिपे रहते हैं, उसी प्रकार सीमित अहंभाव में अनन्त कामनाएँ छिपी रहती हैं । कामनाओं की उत्पत्ति में दुःख और पूर्ति में सुख प्रतीत होता है । यहाँ पूर्ति का अर्थ प्राप्ति नहीं, बल्कि प्रवृति है, क्योंकि जब कामना प्रवृति का स्वरूप धारण करती है, तब कर्ता को सुख प्रतीत होता है । प्रतीति समीपत्व सिद्ध करती है, एकता नहीं । अत्यन्त समीपता होने पर भी कुछ न कुछ दूरी शेष रहती है । अतः प्रवृति प्राप्ति नहीं हो सकती ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 23-24) ।