Monday 30 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 30 April 2012
(वैशाख शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी के साथ बुराई न करना

      निर्दोष जीवन से ही समाज में निर्दोषता व्यापक होती है ।  निर्दोष साधक दोषयुक्त मानव को देख, करुणित होता है, क्षोभित नहीं। उसे परदुःख अपना ही दुःख प्रतीत होता है और करुणित होकर उसके प्रति क्रियात्मक तथा भावात्मक सहयोग देने के लिए तत्पर हो जाता है ।

        उसका परिणाम यह होता है कि अपराधी स्वयं अपने अपराध को देख, निर्दोष होने के लिए आकुल तथा व्याकुल हो जाता है, और फिर वह बड़ी ही सुगमतापूर्वक वर्तमान निर्दोषता को सुरक्षित रखने में समर्थ होता है । इस प्रकार साधननिष्ठ जीवन से समाज में निर्दोषता व्यापक होती है ।

       बल का दुरूपयोग न करने से ही कर्तव्यपरायणता आती है और फिर उसके द्वारा सभी के अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं, जिससे समाज में कर्तव्यपरायणता की अभिरुचि जाग्रत होती है।

      कर्तव्यनिष्ठ होने की माँग साधक को अकर्तव्य से रहित कर देती है, जिसके होते ही स्वतः कर्तव्यपरायणता आ जाती है। बुराई-रहित होने से बुराई का नाश होता है, किसी अन्य प्रकार से नहीं । इतना ही नहीं, बुराई के बदले में भी जब भलाई की जाती है तब बुराई करनेवाला बुराई-रहित होने के लिए तत्पर हो जाता है।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 28) ।