Tuesday, 17 April 2012
(वैशाख कृष्ण वरूथिनी एकादशी, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4
शान्त रस में दुःख की निवृति है, राग की निवृति है। शान्त रस में राग और दुःख की निवृति है लेकिन अगर कोई शान्ति के रस में सन्तुष्ट हो जाए तो शान्ति के रस में सन्तुष्ट प्राणी अमरत्व की बात नहीं जान पाएगा । जो अमरत्व के रस में सन्तुष्ट हो जाएगा, तो वह प्रेम में जो अगाध, अनन्त, नित नव-रस है, उससे वंचित हो जाएगा ।
अन्तर क्या है ? आप सोचिए, शान्त रस में चित्त का निरोध है, चित्त की शुद्धि है और ज्ञान के रस में चित्त का बाध है, चित्त की असंगता है और प्रेम के रस में चित्त अपने पास नहीं रहता । योगी का मन शान्त और शुद्ध हो जाता है, ज्ञानी अपने मन से असंग हो जाता है अथवा यों कहो कि ज्ञान से मन का नाश हो जाता है किन्तु प्रेमी का मन प्रेमास्पद के पास रहता है। प्रेमी वही है जिसका मन प्रेमास्पद के पास हो ।
तो हमारा प्रेमास्पद कैसा है ? सब प्रकार से पूर्ण है, अनन्त है, अपार है, अखण्ड है । तो जब हमारा मन उस अनन्त, अपार के पास चला जाएगा, तो प्रेमी का मन कैसा होगा ? आप्तकाम होगा। इससे तात्पर्य क्या निकला ? तात्पर्य यह निकला कि प्रेमी तो हो जाता है अचाह और प्रेमास्पद में उत्पन्न होती है चाह। यानि कि जो पूर्ण है, उसमें तो चाह उत्पन्न होती है, जो अपूर्ण है, वह चाह-रहित हो जाता है ।
क्या इसका अर्थ है कि प्रेमास्पद में किसी प्रकार की कमी हो जाती है । कमी नहीं होती । यह प्रेम का स्वभाव ही है कि प्रेम प्रेमास्पद को प्रेमी के अधीन कर देता है । क्योंकि प्रेमी अपने पास मन नहीं रखता, प्रेमी में अपनी करके कोई वस्तु नहीं होती। जहाँ अपनी कोई वस्तु नहीं है, वहाँ प्रेमास्पद कैसे विमुख हो सकता है ? कैसे उससे अलग रह सकता है ? कैसे उसके बिना रह सकता है ? प्रेमास्पद प्रेमी के मन को लेकर अपने प्रेमियों का चिन्तन करता है, प्रेमियों के लिए व्याकुल होता है ।
तभी तो श्यामसुन्दर उद्धवजी से कहते हैं कि भैया उद्धव, जब से ब्रज छोड़ा है, किसी ने माखन-रोटी नहीं दी, किसी ने दूध के झाग नहीं खिलाए, किसी ने कन्हैया, कन्हैया कहकर नहीं पुकारा, किसी ने गूंजा की माला नहीं पहनाई । यह किसका मन है? यह मैया यशोदा का मन है । तो मैया यशोदा के मन को ले करके कन्हैया ब्रजवासियों के विरह में व्याकुल हैं । और कन्हैया को लेकर ब्रजवासी आप्तकाम हैं, आत्माराम है, नित्यमुक्त हैं। नित्यमुक्त होने पर भी आप्तकाम होने पर भी कन्हैया की विस्मृति नहीं है ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 58-60) ।