Sunday, 08 April 2012
(वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६९, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4
पवित्र प्रेम में प्रेमास्पद को ही रस देने की उत्कट लालसा रहती है। प्रेमास्पद का रस यदि अलग होने में है, तो वियोग की वेदना प्रेमी सह सकता है। प्रेमास्पद का रस मिलने में है तो मिल सकता है । लेकिन जिसमें प्रेमास्पद को रस मिलता हो, वहीं पवित्र प्रेम है ।
तो इस दृष्टि से आप विचार करके देखें तो पवित्र प्रेम का अर्थ क्या हुआ ? कि प्रेमास्पद को रस देना । अब आप विचार करें, बहुत गम्भीरता से विचार करें कि भाई, जो सब प्रकार से समर्थ हो, पूर्ण हो उसको रस किसलिए दिया जाए ? क्योंकि जब किसी में किसी प्रकार की कमी हो तो उसे पूरा करने के लिए रस दिया जाता है ।
तो भाई, कमी को पूरा करनेवाला जो रस होता है वह प्रेम-रस नहीं होता, वह भोग का रस होता है । तो भोग के रस में और प्रेम के रस में एक बड़ा अन्तर होता है । भोग के रस में कुछ लेने की लालसा होती है, किन्तु प्रेम के रस में कुछ लेने की लालसा नहीं होती, तो जब कुछ लेने की लालसा नहीं होती, तो फिर प्रेम का रस कैसे दिया जा सकता है ?
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 56-57) ।