Monday, 27 February 2012
(फाल्गुन शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
सत्संग मानव का स्वधर्म
सत्संग का अर्थ है कि जो नहीं करनेवाली बात है वह नहीं करेंगे । जैसे - अगर आपसे भलाई नहीं होती तो कोई बात नहीं; किसी के साथ बुराई मत करो । तो बुराई-रहित होने से हम भले हो जाएँगे और जब हम भले हो जाएँगे तो भलाई स्वतः होने लगेगी क्योंकि कर्ता में ही से कर्म निकलता है। होनेवाली भलाई का अभिमान और फल छोड़ दें तब आप स्वाधीन हो जाएँगे । स्वाधीन होने से दो चीजें अपने आप आ जाती हैं जीवन में - संसार के प्रति उदारता और परमात्मा के प्रति प्रेम स्वतः उदय होता है । यह तब सत्संग का ही फल है ।
और यह भी कहा गया था कि जितनी समस्याएँ आती हैं जीवन में उन सारी समस्याओं का हल सत्संग से ही हो सकता है। और सत्संग बताया आपका अपना स्वधर्म, कोई अभ्यास नहीं बताया । तीन तत्व आपमें हैं । ज्ञान का तत्व है उसका तो अनादर न करें, बल का तत्व है उसका दुरूपयोग न करें, श्रद्धा का तत्व है उसमें विकल्प न करें । क्या चीज आपके जीवन में ज्ञान से सिद्ध है ? क्या चीज आपके बल से सिद्ध है ? क्या चीज आपकी आस्था से सिद्ध है ? कर्तव्यपरायणता आपके बल के अधीन है, असंगता ज्ञान के अधीन है और आत्मीयता आस्था के अधीन है।
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 31-32) ।
Satsang : Man's own inmost religion
(Continuance from the last blog-post)
The gist of Satsang is that we won’t do what is unworthy of doing. For example, it is not important if you are unable to do good; only don’t be an evildoer to anyone that you might become devoid of evil, and be transformed into good. When matured into good, beneficence will automatically emanate from you because action originates from doer. You will realize spiritual freedom when you surrender even the fruit and self-conceit of good flowing spontaneously from you. Two excellent essential elements of sadhana emerge naturally in life with this freedom of spirit – there is dawn of magnanimity to the world and love for God. All this is the fruition of Satsang alone.
And affirmation was made even to the effect that all problems which come up in life can be setteled by Satsang alone. And Satsang itself was underlined as your own inmost religion; no mechanical practice of a given exercise was pointed out as the panacea. You are an extraordinary alchemy of three elemental constituents. Don’t be irreverent to the element of awareness germane to you, don’t abuse the element of vigor, verve of the body-mind and don’t allow contamination of faith with alternative options through doubt and uncertainty. What are the excellences in terms of sadhana attainable by virtue of the three elemental essences of our organized being? Devotion to duty is contingent on right use of strength of the body-mind; dispassion, detachment is subject to reverence for inward awareness and loving oneness with God is realized on condition of faith absolutely untainted by doubt.
-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 38-39)