Thursday, 23 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 23 February 2012
(फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        हम क्या करें ? यह एक सजग मानव की माँग है। इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि मिली हुई स्वाधीनता का दुरूपयोग न करें, अपितु पवित्र भाव से सदुपयोग करें अथवा यों कहो दुरूपयोग न करने पर सदुपयोग स्वतः होगा । यह एक प्राकृतिक विधान है । हाँ, विचारपूर्वक किए हुए सदुपयोग का अभिमान न करें और उसका अपने लिए फल न माँगें।
      
         केवल कर्तव्य-बुद्धि से करने की बात है, जिससे विद्यमान राग की निवृति हो जाय । राग-निवृति से ही स्वतः योग प्राप्त होता है । यह प्रकृति से परे का विधान है । योग की पूर्णता से बोध एवं प्रेम की अभिव्यक्ति होती है । यह प्रभु का मंगलमय विधान है । प्रकृति का विधान कर्तव्य-विज्ञान और प्रकृति से परे का विधान अध्यात्मवाद एवं प्रभु का मंगलमय विधान आस्तिकवाद है ।

        यह सर्वमान्य सत्य है कि प्रत्येक मानव में करने, जानने और मानने की सामर्थ्य है । वह उसे अपने रचयिता से प्राप्त हुई है। वह किसी प्रयास का फल नहीं है । इतना ही नहीं, यदि यह मान लिया जाय कि इन तत्वों की प्राप्ति से ही प्रयास का आरम्भ होता है, तो अत्युक्ति न होगी । सामर्थ्य का दुरूपयोग न करना कर्तव्य-विज्ञान है, इससे मानव, जगत् के लिए उपयोगी होता है; किन्तु जगत् में अपना कुछ नहीं है । अतः अपने को जगत् से कुछ नहीं चाहिए । यह अध्यात्म-विज्ञान अर्थात् मानव-जीवन का दर्शन है । दर्शन हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है ।
          
        निर्मम तथा निष्काम होने से ही स्वाधीनता से अभिन्नता होती है । जीवन-विज्ञान बुराई-रहित होने की प्रेरणा देता है और फिर स्वतः परिस्थिति के अनुसार भलाई होने लगती है । यही भौतिकवाद तथा कर्तव्य-विज्ञान है । यह कर्तव्य मानव को स्वतः करना चाहिए । यही मानवीय साम्य है, सच्चा साम्य है। यह साम्य मानव को स्वाधीनतापूर्वक अपने द्वारा अपने लिए अपनाना चाहिए । तभी व्यक्तिगत क्रान्ति से समाज और व्यकित में एकता होगी ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 15-16)