Friday, 20 January 2012
(माघ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
जीवन का सत्य
हमारी साधना में संसार का सम्बन्ध बाधक है; संसार बाधक नहीं है। इसलिए संसार का सम्बन्ध टूटने से साधना में जो बाधा थी, वह नष्ट हो गई ।
अब बाधा का नाश तो हो गया, अब इसका विकास क्रम क्या होगा - इस पर थोड़ा विचार कीजिए । जिस समय बल के दुरूपयोग को छोड़कर उसके फल और अभिमान को छोड़ देंगे तो आप थोड़ी देर के लिए अपने को अपने में सन्तुष्ट पाएँगें । तो संसार से सम्बन्ध टूटने का फल क्या हुआ कि मानव अपने में अपने को सन्तुष्ट पाता है ।
अब अपने में अपने को सन्तुष्ट पाने का फल क्या है? अपने में जो अपना जीवन है वह उसे प्राप्त हो जाएगा । अपने में अपना जो परमात्मा है वह उसे प्राप्त हो जाएगा या अपने में जो सर्व दुःखों की निवृति है, वह उसको प्राप्त हो जाएगी या अपने में जो अपना आनन्द है वह हमको प्राप्त हो जाएगा ।
यह जो अनेक ढंग से एक बात कही गई, यह अनेक मान्यताओं के कारण कही गई । नहीं तो, सीधी बात यह है कि बुराई-रहित होकर, भलाई का फल और अभिमान छोड़कर साधक अपने में सन्तुष्ट होकर सब कुछ पा जाता है । इतना कहना पर्याप्त था। लेकिन आप लोगों के मस्तिष्क में विभिन्न विचार अंकित होते हैं इसलिए सभी दृष्टियों से विवेचन की जरूरत होती है।
-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 10-11) ।
Truth of life
(Continuance from the last blog-post)
Our entanglement in the world is the obstruction in sadhana bringing it to inert standstill; the world itself is no hindrance on its own. Therefore, with the break-up of attachment to the world, whatever has been the barrier in sadhana, is eliminated forever.
Now that obstacles are eliminated in the above mentioned way, let us consider a bit the sequence of evolution in sadhana. As you steer clear of the misuse of innate energy, its fruit and the pride of it, you will realize for a while a contentment of calm placidity in your inner self. The consequence of detachment from the world is that man realizes a calm content within himself.
Now, what is the result of realizing this calm content within oneself ? He will find the innate, existent life in him. He will obtain the live ever-presence of God in him or the unbounded space of consciousness free from all traces of suffering will unfold within him or he will be graced by the shower of his own inward self-bliss.
This predication of a singular, unique realization in many ways has been made because of many concepts derived from variety of spiritual experience. Otherwise, the plain fact is that eschewing all evil, renouncing the fruit of doing good, transcending its pride as a good Samaritan, the sadhak, the spiritual aspirant, realizes all things in the content of inward being in egoless consciousness. This much was adequate to state the unique, impeccable experience beyond words. But the listener's - the sadhak's minds are imprinted, programmed, with different concepts in this regard so that commentary according to all angles of observation is required.
-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 20)