Tuesday, 29 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 29 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

      दुःख का प्रभाव सुख-लोलुपता का अन्त कर मानव को सुख की आशा से मुक्त कर देता है । सुख की आशा से रहित होते ही सुख-दुःख से अतीत के जीवन की तीव्र जिज्ञासा तथा उत्कट लालसा जाग्रत होती है, जो विकास का मूल है ।

        सुख के न रहने अथवा उसके चले जाने की सम्भावना से दुःख की प्रतीति होती है । दुःख की प्रतीति होने पर यदि असावधानी से सुख की आशा उत्पन्न हो गई, तो दुःख का भोग होगा, प्रभाव नहीं । यदि आए हुए दुःख ने सुख की आशा को उत्पन्न नहीं होने दिया, अपितु प्राप्त सुख में भी दुःख का दर्शन करा दिया, तो यह दुःख का प्रभाव है । सुख में दुःख का दर्शन होते ही सुख के भोग की रूचि का नाश होता है, जिसके होते ही सुख-लोलुपता तथा सुख की आशा शेष नहीं रहती और फिर स्वतः दुःख का प्रभाव, दुःख का अन्त कर वास्तविक जीवन से साधक को अभिन्न कर देता है ।

        दुःख का भोग दुखी को न तो सुखी कर पाता है और न दुःख का ही अन्त होता है, अपितु बेचारा दुःख का भोगी सुख की आशा में ही आबद्ध रहता है । इस दृष्टि से दुःख का भोग दुखी का अहित ही करता है । दुःख के प्रभाव तथा उसके भोग का अन्तर स्पष्ट हो जाने पर प्रत्येक दुखी दुःख के प्रभाव को अपनाकर कृतकृत्य हो सकता है ।

        दुःख का भोग जड़ता और दुःख का प्रभाव चेतनता प्रदान करता है । सुख के भोगी को दुःख विवश होकर भोगना ही पड़ता है। सुख-भोग की रूचि बनाये रखने पर दुःख का भोग होता ही रहता है । इस कारण सुख-भोग की रूचि का नाश अनिवार्य है, जो दुःख के प्रभाव से ही सम्भव है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 21)