Saturday, 26 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 26 November 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
          
(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ? 

        अपने लिए किसी अन्य की अपेक्षा न हो; अपितु अपने में जो प्रेमास्पद है, उसी की प्रीति अपना जीवन हो जाय। प्रीति और प्रीतम के नित्य-विहार में ही अनन्त, अविनाशी, नित्य-नव रस की अभिव्यक्ति होती है । उसकी उपलब्धि ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसकी प्राप्ति एक-मात्र सवाधीनता का सदुपयोग एवं स्वाधीन होने में है । यह जीवन का सत्य है ।

        सत्य से अभिन्न होने के लिए यह ज्ञानपूर्वक अनुभव करना है कि संसार में मेरा कुछ नहीं है, मेरा किसी पर कोई अधिकार नहीं है, अपितु मुझपर सभी का अधिकार है। बुराई-रहित होने से सभी के अधिकार की रक्षा स्वतः हो जाती है और भलाई का अभिमान तथा फल छोड़ देने से मानव स्वाधीन होकर, अपने में अपने को सन्तुष्ट कर अविनाशी जीवन से अभिन्न हो जाता है और फिर अनन्त की अहैतुकी कृपा से उदारता तथा प्रेम की स्वतः अभिव्यक्ति होती है ।

        "मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए" - यह मानव का पुरुषार्थ है । सर्व-समर्थ प्रभु अपने हैं, सब कुछ प्रभु का है - यह वेद-वाणी तथा गुरुवाणी के द्वारा विकल्प-रहित विश्वासपूर्वक स्वीकार करना चाहिए । विश्वास से भिन्न प्रभु-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है । निर्विकारता, चिर-शान्ति तथा अविनाशी जीवन ज्ञान से सिद्ध है और सबकुछ प्रभु का है, प्रभु अपने हैं - यह विश्वास से सिद्ध है । विश्वास भी बल तथा ज्ञान के समान दैवी-तत्व है ।

        बल जगत् की सेवा के लिए है और ज्ञान भूल-रहित होने के लिए है और विश्वास से ही प्रभु से आत्मीय सम्बन्ध होता है। बल का उपयोग विज्ञान से होता है अथवा यों कहो कि विज्ञान भी एक प्रकार का बल है, उसका कभी भी दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। बल का दुरूपयोग न करना मानवता है अर्थात् जीवन-विज्ञान है। सदुपयोग के अभिमान तथा फलासक्ति से रहित होना अध्यात्मवाद अर्थात् मानव-दर्शन है । जीवन-विज्ञान हमें उदारता तथा अध्यात्म-विज्ञान हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है । प्रभु अपने हैं, अपने में हैं - यह आस्था हमें प्रेम-तत्व से अभिन्न करती है ।

        उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम ही जीवन है, जिसकी माँग बीज-रूप से मानव-मात्र में विद्यमान है । जीवन का जो सत्य है उसे स्वीकार करने से ही भूल की निवृति एवं योग, बोध, प्रेम की प्राप्ति होती है । यह अनुभव-सिद्ध सत्य है ।

- 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से (Page No. 16-18)