Thursday, 17 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन
39. मेरा कुछ नहीं है, यह जानने की बात है और बुराई रहित होना, यह धर्म है, धारण करने की बात है । तो धर्म को धारण करो, भूल रहित हो जाओ और परमात्मा को मान लो। आपका जीवन कल्याणमय हो जाएगा ।
40. भगवान् की दृष्टि से हम कभी ओझल नहीं हैं, उनकी सत्ता से हम कभी बाहर नहीं हैं । हम भगवान् की महिमा स्वीकार नहीं करते, उनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, तो उससे भगवान् हमको दूर मालूम होते हैं ।
41. भगवान् के अस्तित्व को स्वीकार करना ही तो आस्तिकता है और महत्व को स्वीकार करना ही भगवान् की स्तुति है और भगवान् के सम्बन्ध को स्वीकार करना ही उपासना है।
42. भगवान् के अस्तित्व को, महत्व को और सम्बन्ध को स्वीकार करना अपना काम है और उस स्वीकृति को सजीव कर देना, यह प्रभु का काम है । जब हम अपना काम ठीक कर देते हैं तो प्रभु का काम ठीक होता रहता है, इसमें कमी होती नहीं है।
43. साधक के जीवन में असफलता के लिए कोई स्थान ही नहीं है - इस महावाक्य में अविचल आस्था करते ही सफलता की उत्कृष्ट लालसा तीव्र होती है, जो समस्त कामनाओं को भस्मीभूत कर साधक को साध्य से अभिन्न कर देती है । यह सजग साधकों का अनुभव है ।
44. अपने परम प्रेमास्पद सदैव अपने ही में हैं । उनमें अपनी अविचल आस्था रहनी चाहिए । प्रेमास्पद के अस्तित्व तथा महत्व को स्वीकार कर उनसे आत्मीय सम्बन्ध अत्यन्त आवश्यक है । आत्मीय सम्बन्ध से ही साधक में अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति होती है ।
(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 19-24) [For details, please read the book]
40. भगवान् की दृष्टि से हम कभी ओझल नहीं हैं, उनकी सत्ता से हम कभी बाहर नहीं हैं । हम भगवान् की महिमा स्वीकार नहीं करते, उनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, तो उससे भगवान् हमको दूर मालूम होते हैं ।
41. भगवान् के अस्तित्व को स्वीकार करना ही तो आस्तिकता है और महत्व को स्वीकार करना ही भगवान् की स्तुति है और भगवान् के सम्बन्ध को स्वीकार करना ही उपासना है।
42. भगवान् के अस्तित्व को, महत्व को और सम्बन्ध को स्वीकार करना अपना काम है और उस स्वीकृति को सजीव कर देना, यह प्रभु का काम है । जब हम अपना काम ठीक कर देते हैं तो प्रभु का काम ठीक होता रहता है, इसमें कमी होती नहीं है।
43. साधक के जीवन में असफलता के लिए कोई स्थान ही नहीं है - इस महावाक्य में अविचल आस्था करते ही सफलता की उत्कृष्ट लालसा तीव्र होती है, जो समस्त कामनाओं को भस्मीभूत कर साधक को साध्य से अभिन्न कर देती है । यह सजग साधकों का अनुभव है ।
44. अपने परम प्रेमास्पद सदैव अपने ही में हैं । उनमें अपनी अविचल आस्था रहनी चाहिए । प्रेमास्पद के अस्तित्व तथा महत्व को स्वीकार कर उनसे आत्मीय सम्बन्ध अत्यन्त आवश्यक है । आत्मीय सम्बन्ध से ही साधक में अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति होती है ।
(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 19-24) [For details, please read the book]