Monday, 14 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 14 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण गणेश-चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

18.    सेवा, त्याग और प्रेम तीनों इकट्ठे हो गए, भजन हो गया । भजन में सेवा भी है, त्याग भी है और प्रेम भी है।

19.    भगवान को जबतक अपना नहीं मानोगो तबतक भगवान प्यारा लगेगा नहीं और भगवान जबतक प्यारा लगेगा नहीं, तबतक उसकी याद आयेगी नहीं और जबतक याद नहीं आयेगी, तबतक भजन होगा नहीं ।

20.    प्रभु की महिमा स्वीकार करो, स्तुति हो गयी । प्रभु से सम्बन्ध स्वीकार करो, उपासना हो गयी । प्रभु के प्रेम की आवश्यकता अनुभव करो, प्रार्थना हो गयी ।

21.    मनुष्य में तीन बातें होती हैं - भोग की वृति होती है, जिज्ञासा होती है और भगवद्-प्राप्ति की लालसा होती है । तो भोग की वृति का त्याग कर दो, जिज्ञासा पूरी हो जाएगी और भगवद्-प्राप्ति की लालसा उदय हो जाएगी ।

22.    हमें देखना चाहिए कि हमारा सम्बन्ध हमारी ओर से किसके साथ है ? परमात्मा के साथ है या जगत् के साथ है; अच्छाई के साथ है या बुराई के साथ है ? हमको क्या पसन्द आता है ? अगर हमको परमात्मा का सम्बन्ध अच्छा लगता है, तो संसार का सम्बन्ध अपने आप ही टूट जाएगा । अगर संसार का सम्बन्ध हमने तोड़ दिया है, तो परमात्मा से सम्बन्ध अपने आप हो जाएगा । तो आपके और परमात्मा के बीच संसार पर्दा नहीं है, उससे सम्बन्ध पर्दा है ।

23.    प्रेम करने का तरीका आज तक संसार में कोई बतला नहीं सका, और निकला भी नहीं है । तरीके से प्रेम नहीं हुआ करता, क्योंकि प्रेम का तरीका होता, तो जो काम तरीके से हो सकता है वह मशीन से भी हो सकता है । तब तो आज के वैज्ञानिक युग में प्रेम प्राप्त करने की मशीन भी बन जातीं । तो प्रेम करने का कोई तरीका नहीं है, पर प्रेम करना सबको आता है । ......... परमात्मा अपना है, उसे अपना बनालें, तो वह प्यारा लगता है ।

24.    आप सुनना और सीखना बंद करें और जानना और मानना प्रारम्भ करें, तो काम बन जाएगा । जानने के स्थान पर - "मेरा कुछ नहीं है" - इसके सिवाय और कुछ नहीं जानना है । और मानने के स्थान पर सिवाय परमात्मा के और कोई मानने में आता नहीं है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 13-15) [For details, please read the book]