Friday, 11 November 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 11 November 2011
(मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

44.    संसार की सहायता से जबतक जीवन मालूम होता है, तबतक तो मृत्यु के ही क्षेत्र में रहते हैं । शरीर के रहने का नाम जीवन नहीं है । ........... शरीर से सम्बन्ध टूटने के बाद जीवन की प्राप्ति होती है ।

45.    जिसको आप जानना और समझना कहते हैं, वह तो सीखना है । आपने सीखा है, सुना है । न आपने जाना है, न समझा है । ........... जानने का अर्थ यह है कि जब आप ठीक-ठीक जान लें कि सचमुच इतने बड़े संसार में मेरा कुछ है ही नहीं और मुझे कुछ नहीं चाहिए ।

46.    जो साधक अपने ज्ञान का आदर नहीं करता, वह गुरु और ग्रन्थ के ज्ञान का भी आदर नहीं कर सकता । जैसे, जो नेत्र के प्रकाश का उपयोग नहीं करता, वह सूर्य के प्रकाश का भी उपयोग नहीं कर पाता ।

47.    कर्म ज्ञान का साधन नहीं होता, बल्कि भोग का दाता होता है।

48.    एक शरीर को लेकर कुटिया के अन्दर बंद कर दिया और हम त्यागी हो गए । तो मैं कहूँगा कि ऐसे तो तुम्हारे बाप भी त्यागी नहीं हो सकते । यदि पूछो, क्यों त्यागी नहीं हो सकते ? तो कहना होगा कि आपने अपना {अहम् का} तो त्याग किया नहीं । भाई मेरे, अगर त्याग करना हो तो अपना त्याग करो। और प्रेम करना हो तो सभी को प्रेम करो । और यदि अपने-आप का त्याग नहीं कर सकते तो आप संसार का कभी त्याग नहीं कर सकते ।

49.    केवल गृहत्याग करने एवं वस्त्र रंगनेमात्र से किसी को योग-बोध-प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती । यह त्याग नहीं वरन् त्याग के भेष में अपने कर्तव्य से पलायन करना है ।  

- सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।