Tuesday, 01 November 2011
(कर्तिक शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?
मैं आपको क्या बताऊँ ! मुझसे गुरुदेव ने कहा कि भैया, तू भजन किया कर । मैंने कहा कि भजन क्या होता है ? उन्होंने कहा कि राम-राम कहा कर । मैंने कहा कि मेरा तो राम-नाम में विश्वास ही नहीं है । वे गुरुदेव के रूप में प्रकट होकर प्रसन्न हुए, करुणित हुए । आप जानते हैं, कोई कहे कि हमें उनके नाम पर विश्वास नहीं है, तो कितना दुःख हो ? लेकिन उन्होंने उदारता का भेष धारण किया और कहा कि भैया ! कोई बात नहीं है । अगर तुमको राम-नाम में विश्वास नहीं है, तो कोई बात नहीं है । क्या तुमको यह भी विश्वास नहीं है कि वे हैं ? मैंने कहा कि उनके होने में तो विश्वास है । तो उन्होंने कहा कि यार ! फिर क्या है, अब क्या रह गया ? जब तुम यह मानते हो कि परमात्मा है, ईश्वर है, भगवान है; तब फिर क्या रह गया यार ? तुम उनके शरणागत हो जाओ । वे स्वयं शरणागत का भेष बना कर आए और मुझे अपनी शरणागति प्रदान कर गए ।
आप जानते हैं, शरणागत को कुछ करना नहीं पड़ता । उसे तो याद आती है, वह याद करता नहीं है । उसे विरह होता है । वह विरही भी अपने बल से नहीं बनता, वे करुणासागर ही अपना विरह देते हैं, अपना मिलन देते हैं । उनका मिलन भी नित्य है, उनका विरह भी नित्य है । नित्य विरह और नित्य मिलन शरणागत को मिलता है । नित्य विरह न मिले, तो प्रेम की वृद्धि न हो, और नित्य मिलन न हो, तो प्रेम सजीव न हो । वे अपने दिए हुए प्रेम को सजीव भी कर देते हैं और उत्तरोत्तर बढ़ाते भी रहते हैं । यह उनकी महिमा है ।
आप जानते हैं, यह महिमा कब अनुभव में आती है, कब भासित होती है ? जब मानव अधीर होकर, अपने बल से निराश होकर केवल यह सोचता है कि कोई अपना होता और मुझे अपनाकर मेरे ताप को हर लेता, मेरी व्यथा को हर लेता, अभाव को हर लेता, इस नीरसता को हर लेता, इस भय को हर लेता, मुझे अभय कर देता, मुझे सरस कर देता, मुझे अपना लेता ! यह आवश्यकता मात्र जब जगती है, तब वे देखते हैं कि अब तो इसने अपनी वास्तविक आवश्यकता को सोचा है, समझा है, अपनी आवश्यकता अनुभव की है, तब उनकी अनुपम लीला ऐसी विचित्र होती है कि देखते ही बनता है ।
(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)
आप जानते हैं, शरणागत को कुछ करना नहीं पड़ता । उसे तो याद आती है, वह याद करता नहीं है । उसे विरह होता है । वह विरही भी अपने बल से नहीं बनता, वे करुणासागर ही अपना विरह देते हैं, अपना मिलन देते हैं । उनका मिलन भी नित्य है, उनका विरह भी नित्य है । नित्य विरह और नित्य मिलन शरणागत को मिलता है । नित्य विरह न मिले, तो प्रेम की वृद्धि न हो, और नित्य मिलन न हो, तो प्रेम सजीव न हो । वे अपने दिए हुए प्रेम को सजीव भी कर देते हैं और उत्तरोत्तर बढ़ाते भी रहते हैं । यह उनकी महिमा है ।
आप जानते हैं, यह महिमा कब अनुभव में आती है, कब भासित होती है ? जब मानव अधीर होकर, अपने बल से निराश होकर केवल यह सोचता है कि कोई अपना होता और मुझे अपनाकर मेरे ताप को हर लेता, मेरी व्यथा को हर लेता, अभाव को हर लेता, इस नीरसता को हर लेता, इस भय को हर लेता, मुझे अभय कर देता, मुझे सरस कर देता, मुझे अपना लेता ! यह आवश्यकता मात्र जब जगती है, तब वे देखते हैं कि अब तो इसने अपनी वास्तविक आवश्यकता को सोचा है, समझा है, अपनी आवश्यकता अनुभव की है, तब उनकी अनुपम लीला ऐसी विचित्र होती है कि देखते ही बनता है ।
(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)