Wednesday 19 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 19 October 2011
(कर्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
रोग - अभिशाप है या वरदान ?

६.        रोग की चिन्ता रोग से भी अधिक रोग है । अतः रोग की चिन्ता न करना परम औषधि है । रोग शरीर की वास्तविकता समझाने के लिए आता है। साधारण प्राणी शरीर की सुन्दरता में आसक्त होकर रोग से डरते हैं । वास्तव में रोग आरोग्य की अपेक्षा जीवन की अधिक आवश्यक वस्तु है । क्योंकि आरोग्य से प्रमाद तथा रोग से जागृति होती है । विचारशील को रोग से न डरकर उसका सदुपयोग करना चाहिए । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १०४ (Letter No. 104)

७.        रोग का वास्तविक हेतु केवल राग है क्योंकि राग से व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम होना स्वाभाविक है और व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम से प्राण-शक्ति का क्षीण होना अनिवार्य है । प्राण-शक्ति के दुर्बल होने पर अनेकों रोग स्वतः आ जाते हैं । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

८.        कुछ रोग अदृश्य की मलिनता अर्थात् पूर्व कर्म के फल स्वरूप होते हैं । उनकी निवृति तप, त्याग तथा पुण्यकर्म से अथवा भोगने से ही होती है । असंयम द्वारा उत्पन्न रोग यथेष्ट पथ्य अर्थात् आहार-विहार के ठीक होने से मिट जाते हैं और वीतराग होने पर राग से उत्पन्न होनेवाले रोग भी मिट जाते हैं । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

९.         मेरे विश्वास के अनुसार रोग राग का परिणाम है । राग का अन्त करने के लिए ही रोग उत्पन्न हुआ है । राग का अन्त कर रोग स्वतः नाश हो जाएगा और फिर बुलाने पर भी न आयेगा । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १२१ (Letter No. 121)

१०.         शरणागत साधक प्रत्येक घटना में अपने परम प्रेमास्पद, परम सुह्रदय की अनुपम लीला का दर्शन करते हैं । रोग के रूप में कोई और नहीं है, वे ही देहाभिमान गलाने के लिए आये हैं । तुम किसी भी काल में शरीर नहीं हो । सदैव सर्वत्र अपने शरणागतवत्सल प्यारे प्रभु को देखो । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १४२ (Letter No. 142)

११.         सच तो यह है कि शरीर के रहते हुए ही विचारपूर्वक शरीर से असंग होना अनिवार्य है और यही वास्तविक आरोग्य है । शरीर से किसी काल में जातीय सम्बन्ध नहीं है, केवल सेवा-कार्य के लिए काल्पनिक सम्बन्ध है । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १५९ (Letter No. 159)

१२.         जिस प्रकार मछलियों के उछलने से समुद्र को खेद नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के बनने-बिगड़ने से विचारशील को क्षोभ नहीं होता । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ ४१ (Letter No. 41) (Please read separate chapter on 'Roag' in 'Krantikari Santvani' book )

(शेष आगेके ब्लाग में)