Saturday, 7 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 07 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

         अहम् के परिवर्तन में आपकी स्वीकृति का कितना बड़ा महत्व है । इस बात पर ध्यान नहीं जाता तो बेचारे भोले-भाले साधक अटके रहते हैं। किस बात पर कि अब ऐसा करेंगे तो जीवन बदलेगा, तो कोई किसी अनुष्ठान में लगा हुआ है, तो कोई किसी संकल्प में लगा हुआ है । कोई तीर्थ यात्रा में लगा हुआ है । कोई खास-खास प्रकार के शुभ कार्य में लगा हुआ है। वे सोचते हैं कि इन प्रकार के कर्मों के द्वारा जीवन बदल जाएगा । तो नहीं बदलता है ऐसी बात नहीं है । शुभ कर्मों का फल भी बनता है और शुभ संकल्पों की पूर्ति का फल भी बनता है। लेकिन अगर संकल्प-पूर्ति का महत्त्व रह गया, संकल्प निवृत्ति का महत्व जीवन में नहीं आया तो एक शुभ संकल्प के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा संकल्प ही संकल्प बनता रहेगा ।

        यहीं पर मुझे एक उदाहरण मिला । एक युवास्था के संन्यासी, संन्यासी वेश आये मिलने के लिए । डालमिया कोठी में, जहाँ में रहती हूँ । वहीं आये और कहने लगे कि बहन जी, आप मुझे नहीं पहचानेंगी लेकिन मैं आपको पहचानता हूँ, संन्यासी होने के पहले मैं स्वामी जी महाराज के पास आया करता था। तो प्रणाम किया । अभिवादन किया । बैठाया, तो बातचीत होने लगी । तो कहने लगे कि मैं तीन वर्ष तक उत्तराखण्ड में बद्रीनारायण जी के रास्ते में कहीं पर ऐसा एक अनुष्ठान करके आया हूँ । मैं तीन साल से वहीं पर था । इस वर्ष वह अनुष्ठान पूरा हो गया तो मैं यहाँ आ गया । बहुत अच्छी बात है । फिर कहने लगे कि बहन जी, अब मैं एक दूसरे तीर्थ का नाम लिया, अमरनाथ केदारनाथ कुछ कहा होगा, मुझे याद नहीं है । कि अब मुझे वैसा ही एक अनुष्ठान वहाँ जाकर करना है । तो आपके पास बहुत से उदार लोग आते हैं तो किसी से कह दीजिएगा, मदद करा दीजिएगा ।

        तीन वर्ष का वैसा ही एक अनुष्ठान मैं और करना चाहता हूँ। मैंने कहा अच्छी बात है, सुन लिया, मैनें बातचीत हो गयी, चले गये । मेरे भीतर एक चिंतन आया, मैंने सोचा कि यह सज्जन, यह साधक एक संकल्प तीन वर्ष का पूरा करके आया और उससे इसके भीतर अपने आप में संतुष्ट होने वाली बात नहीं आयी। जी! अगर आ गयी होती तो फिर नए अनुष्ठान का संकल्प नहीं उठता । ठीक है ना ! तो फिर मेरे ध्यान में आया, यह समझदार व्यक्ति क्यों नहीं सोचते हैं कि एक बार इस अनुष्ठान को पूरा करने से भीतर में सत्य की अभिव्यक्ति नहीं हुई तो अनुष्ठान के संकल्प को छोड़ देना चाहिए । यह भी ध्यान में नहीं आया । यह मैं शुभ संकल्प की बात कह रही हूँ, अशुभ संकल्पों की बात नहीं कर रही हूँ । मुझे तो ऐसा लगता है कि मनुष्य जैसे ही सजग होता है, उसके विवेक के प्रकाश में उसको दिखता ही है कि किसी भी प्रकार के अशुभ कार्यों में उसको हाथ नहीं डालना चाहिए। अशुभ कार्य के लिए मनुष्य के जीवन में कोई स्थान नहीं है। गृहस्थी हो तो क्या, वनस्थी हो तो क्या, समाजसेवी हो तो क्या, वनवासी हो तो क्या । अशुभ कार्यों के लिए तो उसके जीवन में स्थान ही नहीं है । मैं शुभ कार्यों के संकल्प में  बँध जाने की चर्चा आपके सामने कर रही हूँ । तो अगर शुभ संकल्प में भी बँध गए आप तो स्वाधीनता मिली कि पराधीनता मिली ? पराधीनता मिली ना ? एक संकल्प पूरा करके आए और उसी के समान दूसरा करने का विचार उठ गया। तो गृहवासियों की सम्पत्ति पर दृष्टि चली गयी । तो सत्य के निकट हुए कि दूर हुए ? दूर ही हुए । जब उन्होंने अपने मुख से मुझसे कहा कि आपके पास बहुत से लोग आते हैं, उदार लोगों से कह दीजिएगा, इस संकल्प की पूर्ति में जिसकी जो इच्छा हो मदद कर दें । तो उन सज्जन पर मुझे मेरी बड़ी सहानुभूति उपजी । भाई के समान प्रिय लगे मुझे। उन्होंने कहा भी था कि स्वामी जी महाराज के पास मैं आया करता था तो इस नाते से भी वे हमको बहुत प्रिय लगे । मैंने कहा कि ये भला आदमी कहाँ फँस गया ? एक संकल्प पूरा हो गया और उसके परिणाम में शांति की अभिव्यक्ति नहीं हुई । अपने आप में संतुष्टि नहीं पैदा हुई। सत्य के निकट होने के भाव में, अपने आप में डूब जाने की घड़ी नहीं आयी तो यह प्यारा भाई बेचारा कब तक संकल्पों की पूर्ति के पीछे घर गृहस्थी वालों का मुँह देखता रहेगा । 

        दुःख हुआ मुझे । इसी जगह सत्संग चल रहा था । वे हमारे प्यारे भाई भी सत्संग में आकर के बैठ गए थे और मैं ऐसे ही बोल रही थी, बोलते-बोलते यह सब मैने कह दिया । उनका नाम लेकर नहीं । यह तो जीवन की बात है । सच्ची बात है । कहती गयी मैं। अब सोच करके देखिए, जो बात पर के सम्बन्ध को स्वीकार करने से जीवन में उत्पन्न हो गयी है । स्व से भिन्न पर की प्रतीति हम लोगों को हो रही है कि नहीं । जी ! हो रही है ना ! स्व की प्रतीति नहीं होती है और जिसकी प्रतीति होती है, वह स्व नही होता । जो आपका दृश्य बन सकता है, वह जीवन नहीं है, यह दार्शनिक सत्य पकड में आ रहा है ?

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 12-14) ।

Friday, 6 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 06 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

        अहम् रूपी अणु की बनावट इतनी अच्छी है कि मनुष्य स्वयं अपनी ही गलत धारणा से असत् के संग में उलझ जाता है और वह स्वयं अपनी ही सही बातों से सत् का संगी बन जाता है। मनुष्य के व्यक्तित्व के विश्लेषण में सैल्फ कनसैप्ट एक बहुत ही प्रधान बात मानी जाती है । सैल्फ कन्सैप्ट अपने सम्बन्ध में आपने क्या धारणा बनाई ? इसी के आधार पर विचार बदल जाते हैं। व्यक्तित्व बदल जाता है । व्यवहार बदल जाता है। तो सैल्फ कन्सैप्ट से अपने सम्बन्ध में अपनी एक धारणा मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को निर्धारित करती है और उसके रहन-सहन, विचार-व्यवहार सबको नियन्त्रित करती है । 

        बहुत विस्तार मनुष्य के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में है। केवल इस एक बात पर कि आप अपने जीवन के सम्बन्ध में कौन-सी धारणा स्वीकार की है । हमारे शोध कार्य का विषय यही था। सैल्फ कन्सेप्ट पर ही हम रिसर्च कर रहे थे । स्वामी जी के पास बैठ करके मुझे इस बात की बहुत ही विशेषता मालूम हुई। कौन सी बात ? कि भाई, सुख-दुःख के जाल में फँसे हुए बहुत दिन निकल गए, कोई अपने मै विशेषता आयी नहीं । मनुष्य होने के नाते उसके भीतर से एक आवश्यकता महसूस होती है कि दुःख रहित जीवन चाहिए, अभाव रहित जीवन चाहिए, जन्म-मरण की बाध्यता टूट जानी चाहिए और परम प्रेम का रस जीवन में भर जाना चाहिए । 

        कोई सम्प्रदाय हो, कोई प्रणाली हो, किसी वर्ग के साधक आप हैं, साकार उपासक हैं, निराकार उपासक हैं । योग के साधक हैं, ज्ञान पंथ के साधक हैं । किस मज़हब को मानने वाले हैं, कुछ अन्तर नहीं आता । ये चार बातें सर्व दुःखों की निवृत्ति, परम स्वाधीनता की प्राप्ति, सत्य का बोध, परम प्रेम का रस सबको चाहिए । मानव-मात्र को चाहिए । जिस समय हम लोग अपनी इस मौलिक माँग पर दृष्टि डालते हैं और अपने द्वारा अकेले में बैठकर के निश्चय करते हैं कि भाई, मुझे तो माँग की पूर्ति के लिए ही जीना है । अब रूचि-पूर्ति का कोई स्थान नहीं रहा जीवन में। उसी समय इतना बड़ा विकास अपने भीतर होता है कि आप देखेंगे कि सोते समय यही बात आपके ध्यान में आएगी और स्वप्न काल में पुराने संस्कारों के प्रभाव से कुछ-कुछ स्वप्न बनेंगे तो स्वप्न काल में भी यह आपका निश्चय काम करता रहेगा। और आँखें खुलते ही याद करना नहीं पड़ेगा, सहज से इस बात की याद आएगी कि अच्छा, सबेरा हो गया ओंखें खुली, अब मुझे उठना है तो मेरी माँग की पूर्ति होनी चाहिये । दुःख-निवृत्ति के लिए मुझे जीना है । परम स्वाधीनता का पुरुषार्थ मुझे करना है, परम प्रेमास्पद प्रभु से मुझे मिलना है । इस बात को याद करना नहीं पड़ेगा । आँख खुलते ही यह बात सहज से आपको याद आएगी । क्यों याद आएगी, क्योंकि आपने अपने लिए अपने द्वारा इस जीवन को स्वीकार कर लिया है ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 11-12) ।

Thursday, 5 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 05 September 2013  
(भाद्रपद अमावस्या, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

        अब अपने लोगों को क्या करना है ? यहाँ इस पुण्यस्थली पर हम सब लोग जुटे हैं किस उद्देश्य से, इस उद्देश्य से जुटे हैं कि भाई रुचि-पूर्ति के सुख के पीछे दौड़ते-दौडते बहुत सारा समय निकल गया । अब शक्ति घटती जा रही है और हमारी अपनी रुचि खत्म नहीं हुई । कपड़ा मिले तो ऐसा खास प्रकार का हो, जो अपने को बहुत अच्छा लगता है और भोजन मिले तो ऐसा हो, जो अपने को बहुत पसंद आता है । इसके पीछे जिन्दगी का बहुत बड़ा भाग निकल गया । यह बात खत्म नहीं हुई तो अपनी जो माँग है, उसे पूरा करने का कौन-सा समय आएगा ? उस पर दृष्टि क्यों नहीं गयी ? उस पर दृष्टि जानी चाहिए । उस पर विचार करना चाहिए । उस माँग की पूर्ति का उपाय सद्पुरुषों की संगति में सीखना चाहिए । सद्ग्रन्थों में से पढ़ना चाहिए ।

        यह कौन सोचता है ? यह मनुष्य सोचता है । ऐसा कौन सोचता है ? जो जीवन की घटनाओं से सबक सीखता है । वह सचेत मनुष्य ऐसा सोच लेता है । और सोच करके उसकी वर्तमान दशा जो है, वह दशा उसके सामने स्पष्ट हो जाती है। फिर वह अपने निश्चय को दृढ़ कर लेता है । जीवन के प्रति दृष्टिकोण को बदल डालता है । वह क्या कहता है कि रुचि-पूर्ति में तो बहुत सा समय बिता दिया, उससे मेरा काम बना नहीं तो आज से अपनी रुचि-पूर्ति के लिए हम नहीं जिएँगे, अपनी माँग-पूर्ति  के लिए जिएँगे । 

        रुचि उसको कहते हैं, जो सदैव पराश्रित और पराधीन बना दे और माँग उसको कहते हैं कि जिसकी पूर्ति में व्यक्ति परम स्वाधीन हो जाए, दुख से मुक्त हो जाए, जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाए, परम प्रेम से भरपूर हो जाए । तो जो सदा-सदा के लिए रहने वाले तत्व हैं, उनकी माँग होती है और जो बनने बिगड़ने वाला जगत् है, उसके प्रति रुचि होती है । साधक-जन का कर्त्तव्य क्या है ? कि आज ही इसी सत्संग भवन में, इसी धंरती पर बैठे-बैठे हम सब लोग अपनी और देख करके सोच लें कि अब आज से इसी क्षण से आगे कभी भी हम रुचि-पूर्ति को स्थान नहीं देंगे, माँग-पूर्ति के लिए जिएँगे ।

        ऐसा हम लोग कर सकते हैं कि नहीं ? जी ! कर सकते हैं। इसमें ऐसा करने में कोई शुभ घड़ी, सुदिन, अच्छा समय खोज ढूँढकर निकालना जरूरी है ? नहीं है । वही शुभ घड़ी है मनुष्य के जीवन में जब कि सत्संग हो । जब आप सत्संग करते हैं तो जिस क्षण में एक सजग व्यक्ति अपने द्वारा सत्संग करता है, वही घड़ी उसके जीवन की शुभ घड़ी हो जाती है । अब सोच कर देखो अपने सम्बन्ध में दृष्टिकोण का परिवर्तन । अब से हम रुचि-पूर्ति को प्रधानता नहीं देंगे माँग-पूर्ति को प्रधानता देंगे, ऐसा निश्चय करना सत्संग कहलाता है । रुचि-पूर्ति के पीछे पड़े रहना असत् का संग है । उसका त्याग करना सत् का संग है । माँग-पूर्ति के लिए तत्पर हो जाना सत् का संग है । तो बड़े महल के भीतर आपका वास हो तो क्या ? और टूटी-फूटी झोपड़ी में बैठे हों तो क्या? और जंगल में वृक्ष के नीचे अथवा पहाड़ की गुफा में बैठे हैं तो क्या ? कोई अन्तर नहीं आता । यदि आप अपने द्वारा यह निश्चय कर लेते हैं कि अब आज से रुचि-पूर्ति के पीछे हम नहीं रहेंगे, माँग-पूर्ति के लिए जिएँगे । बहुत बड़ा विकास आपका होगा, जिस समय ऐसा निर्णय आप करेंगे । उसी समय आपके अहम् में परिवर्तन हो जाएगा ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 9-10) ।

Wednesday, 4 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 04 September 2013  
(भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

प्रवचन 1

सत्संग प्रेमी माताओं, बहनों और भाइयों ।

        हम सब लोग मानव हैं और जीवन की सफलता की चर्चा कर रहे हैं । एक प्रारम्भिक बात जिससे हमें सहायता मिलती है, वह जीवन के प्रति दृष्टिकोण का परिवर्तन है । अभी जैसा कि स्वामी जी महाराज ने बताया कि हम रुचि-पूर्ति के लिए जीते हैं, माँग-पूर्ति के लिए नहीं जीते हैं । तो रुचि-पूर्ति को प्रधानता देंगे तो शरीर और संसार की आसक्ति नहीं मिट सकेगी । अपने लोगों को क्या करना चाहिए कि पहले इस दृष्टिकोण को बदल डालें । अपने द्वारा अकेले में बैठकर विचार कर लिया जाए । 

        रुचि-पूर्ति का जीवन बिताते हुए बहुत समय निकल गया। रुचि पूरी हुई नहीं । इसलिए अब मानव-जीवन को सफल बनाने का प्रश्न आया अपने सामने । तो इस उद्देश्य की पूर्ति पर विशेष ध्यान देना है । रुचि-पूर्ति के प्रश्न को छोड़ देना है । अब से हमारा दैनिक जीवन जो होगा, प्रतिदिन का जीना मेरा होगा वह माँग-पूर्ति के उद्देश्य से होगा, रुचि-पूर्ति के उद्देश्य से नहीं होगा । ऐसा निश्चय अपने द्वारा सभी भाई-बहन ले सकते हैं, जिनके पास बहुत डिग्रियाँ हों वे भी और जो बिल्कुल पढ़े लिखे न हों वे भी। श्रीसम्पन हों वे भी और जो गरीबी में समय बिता रहे हैं वे भी। उच्च वर्ण में जन्मे हैं तब भी और निम्न वर्ण में जन्में हैं तब भी। शहर में रहते हैं तो भी और गाँव में रहते हैं तो भी । शिक्षा-दीक्षा से, धन सम्पत्ति से, पद योग्यता से, रहन-सहन के स्थान आदि से, जीवन के सत्य का direct सम्बन्ध नहीं है । धन हो तो, न हो तो क्या ? पढ़ना, लिखना किया हो, न किया हो तो क्या?

        रुचि-पूर्ति के परिणाम में पराधीनता, अभाव और नीरसता, हम सब लोगों ने पाई है और उसके दुःख को हम लोग जानते हैं। मानव होने के नाते दुःख-रहित जीवन की माँग सभी भाई बहनों में होती है । स्कूल में, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में पढ़ना-लिखना करके इस चीज को सीखते हैं, ऐसी बात नहीं है । बिल्कुल बे पढ़े-लिखे भोले-भाले व्यक्ति जिन्होंने संत कबीर की तरह - 'मसि कागद छूयो नहीं ।' संत कबीर की भाषा है - यह । उन्होंने अपने मुख से अपने बेपढ़े लिखे होने का प्रमण दिया है - 'मसि कागद छुयो नहीं ।' कागज और स्याही उन्होंने हाथ से छुए ही नहीं । तो ऐसे भी भाई-बहन हैं हम लोगों के आस-पास उनसे भी बुला करके, बैठा करके पूछिये कि भई आपके जीवन में सुख और दुःख दोनों आये हैं कि नहीं ? तो क्या कहेंगे ? आये हैं ? कोई नहीं कहते ? नहीं । सुख-दुःख दोनों आये हैं । अच्छा तो उसमें से जो दुःख का भाग है उसको पसन्द करते हो कि मिटाना चाहते हो ? मिटाना चाहते हैं ।

        यह खास व्यक्ति की बात नहीं है । यह मानव मात्र की बात है। दुःख-रहित जीवन सबको चाहिये, मृत्यु-रहित जीवन सबको चाहिये । अभाव और पराधीनता से मुक्त जीवन सबको चाहिये। परम प्रेम के रस से भरा हुआ मीठा-मीठा मधुर-मधुर जीवन सबको चाहिये । अनुभवी संत जन कहते हैं कि स्वाधीनता, अमरत्व और परम प्रेम की सरसता मानव की माँग है । मौलिक माँग है, हर भाई-बहन के भीतर यह माँग रहती है । जाग्रत क्यों नहीं हुई ? तो पहले पहल ध्यान में जब आया कि मैं मनुष्य हूँ और मुझे भूख लगी है, मुझे प्यास लगी है । मुझको सुख-दुःख बाँटने के लिए मित्र-मंडली चाहिये । जन सम्पर्क चाहिए और भविष्य में दुःख न आ जाए तो उसके लिए कुछ धन-संग्रह करना चाहिए । और मरने के बाद ठीक प्रकार से अंत्येष्टि हो जाए तो उसके लिए सुयोग्य संतान चाहिए । पहले व्यक्ति की दृष्टि इन बातों पर जाती है । ये बातें शरीरों से सम्बन्ध रखने वाली हैं। और इनमें भी रुचि-अरुचि पसंदगी-नापसंदगी हर व्यक्ति की अपनी- अपनी अलग तरह की होती है और बड़ी भारी भूल हो जाती है मनुष्य से कि वह सारी शक्ति, सब समय रुचि-पूर्ति पर लगा देता है । रुचिपूर्वक भोजन मिले, रुचिपूर्वक आवास मिले, मन पसंद मित्र-मंडली मिले और शरीर को सब प्रकार से सुख आराम देने के लायक स्थिति बन जाए । इसी पर आदमी का ध्यान चला जाता है । यह ऐसा जाल है कि जितना-जितना इस दिशा में प्रयास करते चले जाओ, नित नयी समस्याएँ उठती जाती हैं, उठती जाती हैं । सारी जिन्दगी खप जाती है । मरने की घड़ी तक समस्याएँ खत्म नहीं होती हैं । यह दशा हो जाती है ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 7-9) ।

Tuesday, 3 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 03 September 2013  
(भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
महाप्रयाण के पूर्व  स्वामीजी के उद्गार

मैं मानव होने के नाते प्रभु का अपना हूँ, आप भी मानव होने से प्रभु के हैं । जड़ से चेतन तक, पापी से मुक्त तक, बालक से बूढ़े तक - सबको प्रेम चाहिये ।

कोई और नहीं है, कोई गैर नहीं है । सत्ता रूप में कोई और नहीं है । व्यवहार में कोई गैर नहीं है । कोई गैर नहीं है, कोई और नहीं है । दुःख देने वाला भी गैर नहीं है ।

किसी भी काल में प्रभु के सिवाय सत्ता किसी और की है ही नहीं - यही सत्य है ।

भगवान् उसी को मिलते हैं, जो उन्हें अपना मानता है। उन्हें अपना मानना ही भजन है ।

प्रभु अपने हैं, यही भजन है, मेरा कुछ नहीं है, यही ज्ञान है और मुझे कुछ नहीं चाहिये यही तप है ।

अपने में अपने प्रियतम हैं । उनके नाते सभी के साथ सद्भावना रखनी चाहिये । जो इसे मानेगा, उसका बेड़ा पार ।

भगवान् पतितपावन भी हैं, भक्तवत्सल भी हैं । अत: निराश नहीं होना चाहिए । किसी साधक को निराश होने की आवश्यकता नहीं है । साधक, प्रभु का हो जाने पर सनाथ हो जाता है ।

जिसने प्रभु की महिमा को स्वीकार किया, उसका कल्याण है, वह सौभाग्यवान है । दुनियाँ में अभागा वही है जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की महिमा को मानता है । जो वस्तु की अपेक्षा प्रभु की ही महिमा स्वीकार करता है, वह भाग्यशाली है ।

सब प्रभु का है, सब प्रभु का है और केवल प्रभु ही हैं । सेवा करो तो इसे ध्यान में रखो । इस भाव से सेवा किसी की भी करोगे, तो वह प्रभु की ही सेवा होगी । प्रभु-विश्वासी के लिए सेवा महान बल है । सेवा में लगने से बल स्वत: आ जाता है । यह महामन्त्र है ।

जय प्रभु, जय प्रभु, जय प्रभु । तुमने सब कुछ दिया, सब कुछ दिया, बिना माँगे दिया । हम सभी उदार हो जायँ, तुम्हारी उदारता पाकर हम सभी स्वाधीन हो जायँ, तुम्हारी स्वाधीनता पाकर, हम सभी प्रेमी हो जायँ तुम्हारे प्रेम को अपनाकर ।

सर्व-समर्थ प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से अपने शरणागत साधकों को साधननिष्ठ बनावें । प्रभु साधकों को अपनी आत्मीयता से जाग्रत प्रियता प्रदान करें । इसी सद्भावना के साथ बहुत-बहुत प्यार, सभी को प्रणाम । 

-  'सन्त-जीवन-दर्पण' पुस्तक से, (Page No. 99-100) ।

Monday, 2 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 02 September 2013  
(भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
महाप्रयाण के पूर्व  स्वामीजी के उद्गार

बुराई करो मत, भलाई का फल मत चाहो । प्रभु को अपना करके अपने में स्वीकार करो ।

मन, वचन, कर्म से जो बुराई-रहित हो जाता है, और जो भलाई का फल नहीं चाहता, वह स्वाधीन हो जाता है । जो स्वाधीन हो जाता है, उससे जगत् और प्रभु प्रसन्न होते हैं। प्रभु सबको स्वाधीनता प्रदान करें ।

दवा कर्त्तव्य के लिए देते रहो । दवा कर्त्तव्य के लिए है, जीवन के लिए नहीं, अपने लिए तो प्रभु ही हैं ।

शरणागत अमर होता है, उसकी मौत नहीं होती । जो कर्त्तव्य रूप में कर सकते हो, करो । जो नहीं कर सकते हो, उसकी परवाह मत करो ।

अपने में अपना जीवन है, अपने मैं अपना प्रभु है । इसी के लिए जीवन है, चिन्तित होने के लिए नहीं ।

मैं अमर हूँ, यार । मेरा यह शरीर न रहे, पर मेरे अनेक शरीर हैं, उनमें मिलता रहूँगा । गुरु मरता नहीं है । गुरु शरीर थोड़े ही है, वह अमर तत्त्व है ।

शरीर के नाश होने पर भी, मेरी सद्भावना साधकों के साथ रहेगी -- अटूट रूप से रहेगी ।

मैं सबके साथ हमेशा रहूँगा । जितने भी शरणागत हैं, उन सबसे मैं अभिन्न हूँ; जितने भी ममता-रहित हैं, उन सबके साथ हूँ। यह मत समझना कि मैं नहीं हूँ, मैं सर्वत्र सबके साथ मौजूद हूँ।

आप लोगों के लिए सहने की शक्ति माँगता हूँ, आप लोगों के लिए निर्भयता माँगता हूँ । आप लोगों के लिए प्रभु-विश्वास मांगता हूँ । मुझसे बड़ा भिखारी और कौन होगा ।

गुरु से, प्रभु से कभी वियोग नहीं होता । जिससे वियोग होता है, वह गुरु नहीं है । 

शोक-भय मत करना, विदाई का आदर करना ।

विचारशील के अनेक शरीर हैं, एक शरीर नहीं ।

साधु के पास दुःखी होने के लिए, मोह के लिए नहीं आया जाता; मुक्त होने के लिए तथा आनन्द के लिए आया जाता है । जो अनिवार्य है, उसके लिए रोना क्या ?

प्रभु का होकर रहना अनिवार्य है, मुक्त होना अनिवार्य है । अमर होने के लिए मरा जाता है । प्रभु का एक विधान है कि अशरीरी जीवन से सेवा होती है, शरीर-बद्ध जीवन से नहीं ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-जीवन-दर्पण' पुस्तक से, (Page No. 98-99) ।

Sunday, 1 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 01 September 2013  
(भाद्रपद कृष्ण जया एकादशी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

महाप्रयाण के पूर्व  स्वामीजी के उद्गार

जो दूसरों के हित के लिए जीता है, वह महान् है । जो अपने लिये जीता है वह अभागा है । दूसरों के हित के लिए जिओ । सुख-भोग के लिये जीना पाप है । दूसरों के लिए जीना महान पुण्य है ।

सेवा सभी की करना, किन्तु आशा किसी से मत करना ।

सेवा का मूल्य प्रभु देता है, संसार नहीं दे सकता ।

जो प्रभु का होकर रहेगा मैं उसका ऋणी हूँ ।

किसी को भी जो वस्तु मिलती है, वह भाग्य से अथवा प्रभु-कृपा से मिलती है । वस्तु के लिए परस्पर झगड़ना नहीं चाहिये।

कोई बात पूरी नहीं होती, तो समझो कि वह जरूरी नहीं है।

प्रभु-विश्वासी होकर रहो यही मेरी सेवा है, बुराई-रहित होकर रहो यही विश्व-सेवा है, अचाह होकर रहो यही अपनी सेवा है।

या अल्लाह या खुदा ! कोई यह न समझना कि शरणानन्द का कोई मजहब या सम्प्रदाय है । जो खुदा का है वह शरणानन्द का है । मानव सेवा संघ मानव मात्र का है इसलिए कहता हूँ कि संघ की सेवा करो ।

किसी एकदेशीय साधना का समर्थक में नहीं हूँ । 

मानव सेवा संघ कोई दल नहीं है, मानव मात्र का सत्य है। उसको अपनाने से योग, बोध, प्रेम की प्राप्ति अनिवार्य है ।

सत्संग से जीवन मिलता है । सत्संग स्वधर्म है, शरीर-धर्म नहीं है । सत्संग-योजना को सजीव बनाकर मानव-जाति को जगा दो, अर्थात् सोई हुई मानवता जाग्रत हो ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-जीवन-दर्पण' पुस्तक से, (Page No. 97) ।