Sunday, 1 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 01 September 2013  
(भाद्रपद कृष्ण जया एकादशी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

महाप्रयाण के पूर्व  स्वामीजी के उद्गार

जो दूसरों के हित के लिए जीता है, वह महान् है । जो अपने लिये जीता है वह अभागा है । दूसरों के हित के लिए जिओ । सुख-भोग के लिये जीना पाप है । दूसरों के लिए जीना महान पुण्य है ।

सेवा सभी की करना, किन्तु आशा किसी से मत करना ।

सेवा का मूल्य प्रभु देता है, संसार नहीं दे सकता ।

जो प्रभु का होकर रहेगा मैं उसका ऋणी हूँ ।

किसी को भी जो वस्तु मिलती है, वह भाग्य से अथवा प्रभु-कृपा से मिलती है । वस्तु के लिए परस्पर झगड़ना नहीं चाहिये।

कोई बात पूरी नहीं होती, तो समझो कि वह जरूरी नहीं है।

प्रभु-विश्वासी होकर रहो यही मेरी सेवा है, बुराई-रहित होकर रहो यही विश्व-सेवा है, अचाह होकर रहो यही अपनी सेवा है।

या अल्लाह या खुदा ! कोई यह न समझना कि शरणानन्द का कोई मजहब या सम्प्रदाय है । जो खुदा का है वह शरणानन्द का है । मानव सेवा संघ मानव मात्र का है इसलिए कहता हूँ कि संघ की सेवा करो ।

किसी एकदेशीय साधना का समर्थक में नहीं हूँ । 

मानव सेवा संघ कोई दल नहीं है, मानव मात्र का सत्य है। उसको अपनाने से योग, बोध, प्रेम की प्राप्ति अनिवार्य है ।

सत्संग से जीवन मिलता है । सत्संग स्वधर्म है, शरीर-धर्म नहीं है । सत्संग-योजना को सजीव बनाकर मानव-जाति को जगा दो, अर्थात् सोई हुई मानवता जाग्रत हो ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-जीवन-दर्पण' पुस्तक से, (Page No. 97) ।