Monday, 02 September 2013
(भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
महाप्रयाण के पूर्व स्वामीजी के उद्गार
• बुराई करो मत, भलाई का फल मत चाहो । प्रभु को अपना करके अपने में स्वीकार करो ।
• मन, वचन, कर्म से जो बुराई-रहित हो जाता है, और जो भलाई का फल नहीं चाहता, वह स्वाधीन हो जाता है । जो स्वाधीन हो जाता है, उससे जगत् और प्रभु प्रसन्न होते हैं। प्रभु सबको स्वाधीनता प्रदान करें ।
• दवा कर्त्तव्य के लिए देते रहो । दवा कर्त्तव्य के लिए है, जीवन के लिए नहीं, अपने लिए तो प्रभु ही हैं ।
• शरणागत अमर होता है, उसकी मौत नहीं होती । जो कर्त्तव्य रूप में कर सकते हो, करो । जो नहीं कर सकते हो, उसकी परवाह मत करो ।
• अपने में अपना जीवन है, अपने मैं अपना प्रभु है । इसी के लिए जीवन है, चिन्तित होने के लिए नहीं ।
• मैं अमर हूँ, यार । मेरा यह शरीर न रहे, पर मेरे अनेक शरीर हैं, उनमें मिलता रहूँगा । गुरु मरता नहीं है । गुरु शरीर थोड़े ही है, वह अमर तत्त्व है ।
• शरीर के नाश होने पर भी, मेरी सद्भावना साधकों के साथ रहेगी -- अटूट रूप से रहेगी ।
• मैं सबके साथ हमेशा रहूँगा । जितने भी शरणागत हैं, उन सबसे मैं अभिन्न हूँ; जितने भी ममता-रहित हैं, उन सबके साथ हूँ। यह मत समझना कि मैं नहीं हूँ, मैं सर्वत्र सबके साथ मौजूद हूँ।
• आप लोगों के लिए सहने की शक्ति माँगता हूँ, आप लोगों के लिए निर्भयता माँगता हूँ । आप लोगों के लिए प्रभु-विश्वास मांगता हूँ । मुझसे बड़ा भिखारी और कौन होगा ।
• गुरु से, प्रभु से कभी वियोग नहीं होता । जिससे वियोग होता है, वह गुरु नहीं है ।
• शोक-भय मत करना, विदाई का आदर करना ।
• विचारशील के अनेक शरीर हैं, एक शरीर नहीं ।
• साधु के पास दुःखी होने के लिए, मोह के लिए नहीं आया जाता; मुक्त होने के लिए तथा आनन्द के लिए आया जाता है । जो अनिवार्य है, उसके लिए रोना क्या ?
• प्रभु का होकर रहना अनिवार्य है, मुक्त होना अनिवार्य है । अमर होने के लिए मरा जाता है । प्रभु का एक विधान है कि अशरीरी जीवन से सेवा होती है, शरीर-बद्ध जीवन से नहीं ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-जीवन-दर्पण' पुस्तक से, (Page No. 98-99) ।