Tuesday, 3 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 03 September 2013  
(भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
महाप्रयाण के पूर्व  स्वामीजी के उद्गार

मैं मानव होने के नाते प्रभु का अपना हूँ, आप भी मानव होने से प्रभु के हैं । जड़ से चेतन तक, पापी से मुक्त तक, बालक से बूढ़े तक - सबको प्रेम चाहिये ।

कोई और नहीं है, कोई गैर नहीं है । सत्ता रूप में कोई और नहीं है । व्यवहार में कोई गैर नहीं है । कोई गैर नहीं है, कोई और नहीं है । दुःख देने वाला भी गैर नहीं है ।

किसी भी काल में प्रभु के सिवाय सत्ता किसी और की है ही नहीं - यही सत्य है ।

भगवान् उसी को मिलते हैं, जो उन्हें अपना मानता है। उन्हें अपना मानना ही भजन है ।

प्रभु अपने हैं, यही भजन है, मेरा कुछ नहीं है, यही ज्ञान है और मुझे कुछ नहीं चाहिये यही तप है ।

अपने में अपने प्रियतम हैं । उनके नाते सभी के साथ सद्भावना रखनी चाहिये । जो इसे मानेगा, उसका बेड़ा पार ।

भगवान् पतितपावन भी हैं, भक्तवत्सल भी हैं । अत: निराश नहीं होना चाहिए । किसी साधक को निराश होने की आवश्यकता नहीं है । साधक, प्रभु का हो जाने पर सनाथ हो जाता है ।

जिसने प्रभु की महिमा को स्वीकार किया, उसका कल्याण है, वह सौभाग्यवान है । दुनियाँ में अभागा वही है जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की महिमा को मानता है । जो वस्तु की अपेक्षा प्रभु की ही महिमा स्वीकार करता है, वह भाग्यशाली है ।

सब प्रभु का है, सब प्रभु का है और केवल प्रभु ही हैं । सेवा करो तो इसे ध्यान में रखो । इस भाव से सेवा किसी की भी करोगे, तो वह प्रभु की ही सेवा होगी । प्रभु-विश्वासी के लिए सेवा महान बल है । सेवा में लगने से बल स्वत: आ जाता है । यह महामन्त्र है ।

जय प्रभु, जय प्रभु, जय प्रभु । तुमने सब कुछ दिया, सब कुछ दिया, बिना माँगे दिया । हम सभी उदार हो जायँ, तुम्हारी उदारता पाकर हम सभी स्वाधीन हो जायँ, तुम्हारी स्वाधीनता पाकर, हम सभी प्रेमी हो जायँ तुम्हारे प्रेम को अपनाकर ।

सर्व-समर्थ प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से अपने शरणागत साधकों को साधननिष्ठ बनावें । प्रभु साधकों को अपनी आत्मीयता से जाग्रत प्रियता प्रदान करें । इसी सद्भावना के साथ बहुत-बहुत प्यार, सभी को प्रणाम । 

-  'सन्त-जीवन-दर्पण' पुस्तक से, (Page No. 99-100) ।