Wednesday 4 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 04 September 2013  
(भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

प्रवचन 1

सत्संग प्रेमी माताओं, बहनों और भाइयों ।

        हम सब लोग मानव हैं और जीवन की सफलता की चर्चा कर रहे हैं । एक प्रारम्भिक बात जिससे हमें सहायता मिलती है, वह जीवन के प्रति दृष्टिकोण का परिवर्तन है । अभी जैसा कि स्वामी जी महाराज ने बताया कि हम रुचि-पूर्ति के लिए जीते हैं, माँग-पूर्ति के लिए नहीं जीते हैं । तो रुचि-पूर्ति को प्रधानता देंगे तो शरीर और संसार की आसक्ति नहीं मिट सकेगी । अपने लोगों को क्या करना चाहिए कि पहले इस दृष्टिकोण को बदल डालें । अपने द्वारा अकेले में बैठकर विचार कर लिया जाए । 

        रुचि-पूर्ति का जीवन बिताते हुए बहुत समय निकल गया। रुचि पूरी हुई नहीं । इसलिए अब मानव-जीवन को सफल बनाने का प्रश्न आया अपने सामने । तो इस उद्देश्य की पूर्ति पर विशेष ध्यान देना है । रुचि-पूर्ति के प्रश्न को छोड़ देना है । अब से हमारा दैनिक जीवन जो होगा, प्रतिदिन का जीना मेरा होगा वह माँग-पूर्ति के उद्देश्य से होगा, रुचि-पूर्ति के उद्देश्य से नहीं होगा । ऐसा निश्चय अपने द्वारा सभी भाई-बहन ले सकते हैं, जिनके पास बहुत डिग्रियाँ हों वे भी और जो बिल्कुल पढ़े लिखे न हों वे भी। श्रीसम्पन हों वे भी और जो गरीबी में समय बिता रहे हैं वे भी। उच्च वर्ण में जन्मे हैं तब भी और निम्न वर्ण में जन्में हैं तब भी। शहर में रहते हैं तो भी और गाँव में रहते हैं तो भी । शिक्षा-दीक्षा से, धन सम्पत्ति से, पद योग्यता से, रहन-सहन के स्थान आदि से, जीवन के सत्य का direct सम्बन्ध नहीं है । धन हो तो, न हो तो क्या ? पढ़ना, लिखना किया हो, न किया हो तो क्या?

        रुचि-पूर्ति के परिणाम में पराधीनता, अभाव और नीरसता, हम सब लोगों ने पाई है और उसके दुःख को हम लोग जानते हैं। मानव होने के नाते दुःख-रहित जीवन की माँग सभी भाई बहनों में होती है । स्कूल में, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में पढ़ना-लिखना करके इस चीज को सीखते हैं, ऐसी बात नहीं है । बिल्कुल बे पढ़े-लिखे भोले-भाले व्यक्ति जिन्होंने संत कबीर की तरह - 'मसि कागद छूयो नहीं ।' संत कबीर की भाषा है - यह । उन्होंने अपने मुख से अपने बेपढ़े लिखे होने का प्रमण दिया है - 'मसि कागद छुयो नहीं ।' कागज और स्याही उन्होंने हाथ से छुए ही नहीं । तो ऐसे भी भाई-बहन हैं हम लोगों के आस-पास उनसे भी बुला करके, बैठा करके पूछिये कि भई आपके जीवन में सुख और दुःख दोनों आये हैं कि नहीं ? तो क्या कहेंगे ? आये हैं ? कोई नहीं कहते ? नहीं । सुख-दुःख दोनों आये हैं । अच्छा तो उसमें से जो दुःख का भाग है उसको पसन्द करते हो कि मिटाना चाहते हो ? मिटाना चाहते हैं ।

        यह खास व्यक्ति की बात नहीं है । यह मानव मात्र की बात है। दुःख-रहित जीवन सबको चाहिये, मृत्यु-रहित जीवन सबको चाहिये । अभाव और पराधीनता से मुक्त जीवन सबको चाहिये। परम प्रेम के रस से भरा हुआ मीठा-मीठा मधुर-मधुर जीवन सबको चाहिये । अनुभवी संत जन कहते हैं कि स्वाधीनता, अमरत्व और परम प्रेम की सरसता मानव की माँग है । मौलिक माँग है, हर भाई-बहन के भीतर यह माँग रहती है । जाग्रत क्यों नहीं हुई ? तो पहले पहल ध्यान में जब आया कि मैं मनुष्य हूँ और मुझे भूख लगी है, मुझे प्यास लगी है । मुझको सुख-दुःख बाँटने के लिए मित्र-मंडली चाहिये । जन सम्पर्क चाहिए और भविष्य में दुःख न आ जाए तो उसके लिए कुछ धन-संग्रह करना चाहिए । और मरने के बाद ठीक प्रकार से अंत्येष्टि हो जाए तो उसके लिए सुयोग्य संतान चाहिए । पहले व्यक्ति की दृष्टि इन बातों पर जाती है । ये बातें शरीरों से सम्बन्ध रखने वाली हैं। और इनमें भी रुचि-अरुचि पसंदगी-नापसंदगी हर व्यक्ति की अपनी- अपनी अलग तरह की होती है और बड़ी भारी भूल हो जाती है मनुष्य से कि वह सारी शक्ति, सब समय रुचि-पूर्ति पर लगा देता है । रुचिपूर्वक भोजन मिले, रुचिपूर्वक आवास मिले, मन पसंद मित्र-मंडली मिले और शरीर को सब प्रकार से सुख आराम देने के लायक स्थिति बन जाए । इसी पर आदमी का ध्यान चला जाता है । यह ऐसा जाल है कि जितना-जितना इस दिशा में प्रयास करते चले जाओ, नित नयी समस्याएँ उठती जाती हैं, उठती जाती हैं । सारी जिन्दगी खप जाती है । मरने की घड़ी तक समस्याएँ खत्म नहीं होती हैं । यह दशा हो जाती है ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 7-9) ।