Thursday 5 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 05 September 2013  
(भाद्रपद अमावस्या, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

        अब अपने लोगों को क्या करना है ? यहाँ इस पुण्यस्थली पर हम सब लोग जुटे हैं किस उद्देश्य से, इस उद्देश्य से जुटे हैं कि भाई रुचि-पूर्ति के सुख के पीछे दौड़ते-दौडते बहुत सारा समय निकल गया । अब शक्ति घटती जा रही है और हमारी अपनी रुचि खत्म नहीं हुई । कपड़ा मिले तो ऐसा खास प्रकार का हो, जो अपने को बहुत अच्छा लगता है और भोजन मिले तो ऐसा हो, जो अपने को बहुत पसंद आता है । इसके पीछे जिन्दगी का बहुत बड़ा भाग निकल गया । यह बात खत्म नहीं हुई तो अपनी जो माँग है, उसे पूरा करने का कौन-सा समय आएगा ? उस पर दृष्टि क्यों नहीं गयी ? उस पर दृष्टि जानी चाहिए । उस पर विचार करना चाहिए । उस माँग की पूर्ति का उपाय सद्पुरुषों की संगति में सीखना चाहिए । सद्ग्रन्थों में से पढ़ना चाहिए ।

        यह कौन सोचता है ? यह मनुष्य सोचता है । ऐसा कौन सोचता है ? जो जीवन की घटनाओं से सबक सीखता है । वह सचेत मनुष्य ऐसा सोच लेता है । और सोच करके उसकी वर्तमान दशा जो है, वह दशा उसके सामने स्पष्ट हो जाती है। फिर वह अपने निश्चय को दृढ़ कर लेता है । जीवन के प्रति दृष्टिकोण को बदल डालता है । वह क्या कहता है कि रुचि-पूर्ति में तो बहुत सा समय बिता दिया, उससे मेरा काम बना नहीं तो आज से अपनी रुचि-पूर्ति के लिए हम नहीं जिएँगे, अपनी माँग-पूर्ति  के लिए जिएँगे । 

        रुचि उसको कहते हैं, जो सदैव पराश्रित और पराधीन बना दे और माँग उसको कहते हैं कि जिसकी पूर्ति में व्यक्ति परम स्वाधीन हो जाए, दुख से मुक्त हो जाए, जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाए, परम प्रेम से भरपूर हो जाए । तो जो सदा-सदा के लिए रहने वाले तत्व हैं, उनकी माँग होती है और जो बनने बिगड़ने वाला जगत् है, उसके प्रति रुचि होती है । साधक-जन का कर्त्तव्य क्या है ? कि आज ही इसी सत्संग भवन में, इसी धंरती पर बैठे-बैठे हम सब लोग अपनी और देख करके सोच लें कि अब आज से इसी क्षण से आगे कभी भी हम रुचि-पूर्ति को स्थान नहीं देंगे, माँग-पूर्ति के लिए जिएँगे ।

        ऐसा हम लोग कर सकते हैं कि नहीं ? जी ! कर सकते हैं। इसमें ऐसा करने में कोई शुभ घड़ी, सुदिन, अच्छा समय खोज ढूँढकर निकालना जरूरी है ? नहीं है । वही शुभ घड़ी है मनुष्य के जीवन में जब कि सत्संग हो । जब आप सत्संग करते हैं तो जिस क्षण में एक सजग व्यक्ति अपने द्वारा सत्संग करता है, वही घड़ी उसके जीवन की शुभ घड़ी हो जाती है । अब सोच कर देखो अपने सम्बन्ध में दृष्टिकोण का परिवर्तन । अब से हम रुचि-पूर्ति को प्रधानता नहीं देंगे माँग-पूर्ति को प्रधानता देंगे, ऐसा निश्चय करना सत्संग कहलाता है । रुचि-पूर्ति के पीछे पड़े रहना असत् का संग है । उसका त्याग करना सत् का संग है । माँग-पूर्ति के लिए तत्पर हो जाना सत् का संग है । तो बड़े महल के भीतर आपका वास हो तो क्या ? और टूटी-फूटी झोपड़ी में बैठे हों तो क्या? और जंगल में वृक्ष के नीचे अथवा पहाड़ की गुफा में बैठे हैं तो क्या ? कोई अन्तर नहीं आता । यदि आप अपने द्वारा यह निश्चय कर लेते हैं कि अब आज से रुचि-पूर्ति के पीछे हम नहीं रहेंगे, माँग-पूर्ति के लिए जिएँगे । बहुत बड़ा विकास आपका होगा, जिस समय ऐसा निर्णय आप करेंगे । उसी समय आपके अहम् में परिवर्तन हो जाएगा ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 9-10) ।