Saturday, 7 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 07 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

         अहम् के परिवर्तन में आपकी स्वीकृति का कितना बड़ा महत्व है । इस बात पर ध्यान नहीं जाता तो बेचारे भोले-भाले साधक अटके रहते हैं। किस बात पर कि अब ऐसा करेंगे तो जीवन बदलेगा, तो कोई किसी अनुष्ठान में लगा हुआ है, तो कोई किसी संकल्प में लगा हुआ है । कोई तीर्थ यात्रा में लगा हुआ है । कोई खास-खास प्रकार के शुभ कार्य में लगा हुआ है। वे सोचते हैं कि इन प्रकार के कर्मों के द्वारा जीवन बदल जाएगा । तो नहीं बदलता है ऐसी बात नहीं है । शुभ कर्मों का फल भी बनता है और शुभ संकल्पों की पूर्ति का फल भी बनता है। लेकिन अगर संकल्प-पूर्ति का महत्त्व रह गया, संकल्प निवृत्ति का महत्व जीवन में नहीं आया तो एक शुभ संकल्प के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा संकल्प ही संकल्प बनता रहेगा ।

        यहीं पर मुझे एक उदाहरण मिला । एक युवास्था के संन्यासी, संन्यासी वेश आये मिलने के लिए । डालमिया कोठी में, जहाँ में रहती हूँ । वहीं आये और कहने लगे कि बहन जी, आप मुझे नहीं पहचानेंगी लेकिन मैं आपको पहचानता हूँ, संन्यासी होने के पहले मैं स्वामी जी महाराज के पास आया करता था। तो प्रणाम किया । अभिवादन किया । बैठाया, तो बातचीत होने लगी । तो कहने लगे कि मैं तीन वर्ष तक उत्तराखण्ड में बद्रीनारायण जी के रास्ते में कहीं पर ऐसा एक अनुष्ठान करके आया हूँ । मैं तीन साल से वहीं पर था । इस वर्ष वह अनुष्ठान पूरा हो गया तो मैं यहाँ आ गया । बहुत अच्छी बात है । फिर कहने लगे कि बहन जी, अब मैं एक दूसरे तीर्थ का नाम लिया, अमरनाथ केदारनाथ कुछ कहा होगा, मुझे याद नहीं है । कि अब मुझे वैसा ही एक अनुष्ठान वहाँ जाकर करना है । तो आपके पास बहुत से उदार लोग आते हैं तो किसी से कह दीजिएगा, मदद करा दीजिएगा ।

        तीन वर्ष का वैसा ही एक अनुष्ठान मैं और करना चाहता हूँ। मैंने कहा अच्छी बात है, सुन लिया, मैनें बातचीत हो गयी, चले गये । मेरे भीतर एक चिंतन आया, मैंने सोचा कि यह सज्जन, यह साधक एक संकल्प तीन वर्ष का पूरा करके आया और उससे इसके भीतर अपने आप में संतुष्ट होने वाली बात नहीं आयी। जी! अगर आ गयी होती तो फिर नए अनुष्ठान का संकल्प नहीं उठता । ठीक है ना ! तो फिर मेरे ध्यान में आया, यह समझदार व्यक्ति क्यों नहीं सोचते हैं कि एक बार इस अनुष्ठान को पूरा करने से भीतर में सत्य की अभिव्यक्ति नहीं हुई तो अनुष्ठान के संकल्प को छोड़ देना चाहिए । यह भी ध्यान में नहीं आया । यह मैं शुभ संकल्प की बात कह रही हूँ, अशुभ संकल्पों की बात नहीं कर रही हूँ । मुझे तो ऐसा लगता है कि मनुष्य जैसे ही सजग होता है, उसके विवेक के प्रकाश में उसको दिखता ही है कि किसी भी प्रकार के अशुभ कार्यों में उसको हाथ नहीं डालना चाहिए। अशुभ कार्य के लिए मनुष्य के जीवन में कोई स्थान नहीं है। गृहस्थी हो तो क्या, वनस्थी हो तो क्या, समाजसेवी हो तो क्या, वनवासी हो तो क्या । अशुभ कार्यों के लिए तो उसके जीवन में स्थान ही नहीं है । मैं शुभ कार्यों के संकल्प में  बँध जाने की चर्चा आपके सामने कर रही हूँ । तो अगर शुभ संकल्प में भी बँध गए आप तो स्वाधीनता मिली कि पराधीनता मिली ? पराधीनता मिली ना ? एक संकल्प पूरा करके आए और उसी के समान दूसरा करने का विचार उठ गया। तो गृहवासियों की सम्पत्ति पर दृष्टि चली गयी । तो सत्य के निकट हुए कि दूर हुए ? दूर ही हुए । जब उन्होंने अपने मुख से मुझसे कहा कि आपके पास बहुत से लोग आते हैं, उदार लोगों से कह दीजिएगा, इस संकल्प की पूर्ति में जिसकी जो इच्छा हो मदद कर दें । तो उन सज्जन पर मुझे मेरी बड़ी सहानुभूति उपजी । भाई के समान प्रिय लगे मुझे। उन्होंने कहा भी था कि स्वामी जी महाराज के पास मैं आया करता था तो इस नाते से भी वे हमको बहुत प्रिय लगे । मैंने कहा कि ये भला आदमी कहाँ फँस गया ? एक संकल्प पूरा हो गया और उसके परिणाम में शांति की अभिव्यक्ति नहीं हुई । अपने आप में संतुष्टि नहीं पैदा हुई। सत्य के निकट होने के भाव में, अपने आप में डूब जाने की घड़ी नहीं आयी तो यह प्यारा भाई बेचारा कब तक संकल्पों की पूर्ति के पीछे घर गृहस्थी वालों का मुँह देखता रहेगा । 

        दुःख हुआ मुझे । इसी जगह सत्संग चल रहा था । वे हमारे प्यारे भाई भी सत्संग में आकर के बैठ गए थे और मैं ऐसे ही बोल रही थी, बोलते-बोलते यह सब मैने कह दिया । उनका नाम लेकर नहीं । यह तो जीवन की बात है । सच्ची बात है । कहती गयी मैं। अब सोच करके देखिए, जो बात पर के सम्बन्ध को स्वीकार करने से जीवन में उत्पन्न हो गयी है । स्व से भिन्न पर की प्रतीति हम लोगों को हो रही है कि नहीं । जी ! हो रही है ना ! स्व की प्रतीति नहीं होती है और जिसकी प्रतीति होती है, वह स्व नही होता । जो आपका दृश्य बन सकता है, वह जीवन नहीं है, यह दार्शनिक सत्य पकड में आ रहा है ?

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 12-14) ।