Sunday, 08 September 2013
(भाद्रपद शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७०, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1
जो आपका दृश्य बन सकता है, जिसके आप द्रष्टा हो सकते हैं, वह जीवन नहीं है । वह स्व नहीं है, पर है। ठीक है ना ! तो पर की प्रतीति हो रही है हम लोगों को । तो जिसकी प्रतीति हो रही है, उसी से सम्बन्ध मानने के कारण स्व से विमुख हो गए । ठीक है ! जिसकी प्रतीति हो रही है, उसकी आवश्यकता अनुभव करने के कारण, उसके चिन्तन में हम फँस गये तो स्व में स्थिति नहीं हुई । जो मुझसे भिन्न दिखाई दे रहा है, जिसकी प्रतीति हो रही है, उससे मैने नाता-रिश्ता जोड़ लिया, उसके सुख-दुःख में उसकी आसक्ति में उलझ गए । तो जो परम प्रेमास्पद मेरा अपना नित्य सम्बन्धी मुझ में ही नित्य विद्यमान है, उसकी विस्मृति हो गयी । ठीक है! अब देखो आगे चलो तो सत्य की अभिव्यक्ति कैसे होगी भाई! जिसकी प्रतीति हो रही है उसकी आवश्यकता अनुभव मत करो, उसकी जरूरत अनुभव मत करो उससे सम्बन्ध मत मानो ।
उसको महत्व मत दो तो उसका चिन्तन छूट जाएगा, उसका लगाव टूट जाएगा, उसका सम्बन्ध टूट जाएगा, मामला खत्म हो गया । इतना ही काम करना है ना । तो असली बात क्या है ? जीवन की सफलता में असली बात क्या है ? तो असली बात यह है, कि चाहे भगवत् विश्वासी हो करके हम लोग इस बात को स्वीकार करे कि मेरा तो नित्य सम्बन्ध अनन्त परमात्मा से है। एक भगवत् अनुरागी संत के पास बैठ करके अपना दुखड़ा सुना रही थी । मेरा सत्संग ऐसा ही रहा हमेशा । अपने भीतर जो सब गंदगी दिखाई देती वह ही मैं संतों को सुनाती रहती । स्वामी जी महाराज को भी मैने खूब सुनाया । एक भगवत् अनुरागी संत के पास मैं कह रही थी कि भई देखिए, अब सब काम तो ठीक ठाक लगता है, सोचना समझना सब हो गया । अब एक ही बात बाकी है, अब मैं ऐसा चाहती हूँ कि हे प्रभु कौन सी घड़ी वह होगी। कब आपकी ऐसी कृपा होगी कि मुझमें यह मेरे पन का भास जो हो रहा है, यह भी खत्म हो जाय । ऐसा मैने कहा तो बड़े अनुराग में भरकर उन्होंने कहा कि अरे इसके फिकर में आप क्यों पडी हैं? उसे सुन्दर रूप दे दो ।
किसी दिन आदमी ऐसा सोचता है कि मैं अमुक का बेटा हूँ, अमुक का बाप हूँ, अमुक का पति हूँ, अमुक की पत्नी हूँ, अमुक की बेटी हूँ, तो दुनिया भर का यह सब जंजाल फँसा रखा था किसी दिन । अब उस असत् सम्बन्ध को छोड़ देने के बाद अब अपनी थकान मिटाने की चिन्ता तुम क्यों करो ? अपना सुन्दर रूप ले लो - मैं उनका दास हूँ, मैं उनका बालक हूँ, मैं उनका मित्र हूँ, मैं उनका सखा हूँ, मैं उनका गुरु हूँ, मैं उनका शिष्य हूँ, मैं उनकी दासी हूँ, मैं उनकी प्रिया हूँ ।
बढ़िया सी स्वीकृति अपने में ले लो । मिटाने के पीछे क्यों पड़े हो ? अगर संसार के सम्बन्धों से प्रमादवश तुमको गौरव मालूम होता था कि हम किसी बड़े आदमी के सम्बन्धी हैं तो उससे कम गौरव नहीं होना चाहिए तुम्हारे में कि मैं अनन्त परमात्मा का बालक हूँ । अरे दुनिया के किसी बड़े आदमी से नाता जोड़ करके तुम अपने को गौरवशाली अनुभव करते हो तो तुम तो सचमुच उस अनन्त परमात्मा के अपने हो तो उस गौरव को याद करो, अहम् के नाश का चिन्तन छोड़ दो ।
यह तो अपने आप से हो जाएगा, उनके प्रेम का रस बढ़ेगा तो इसका कहीं पता चलेगा ? कहीं पता नहीं चलेगा । तो साधन के ढंग में आप सोच करके देखिये कि अशुभ क्रियाओं को तो छोड़ ही दो, अशुभ प्रवृत्तियों का तो नाम ही मत लो, उनके तो जीवन में कभी स्थान ही मत दो । शुभ संकल्पों को भी अगर बनाते ही जाओगे, चेन उसका लगाते ही जाओगे तो एक भी संकल्प अपना पूरा करने के लिए रह गया तो न शरीर से छूटते बनेगा, न समाज से छूटते बनेगा । न पर की प्रतीति में से आप हट सकेंगे ।
यह समग्र प्रतीति ऐसी ही है । परसैप्सन, प्रत्यक्षीकरण उनकी प्रतीति । इसमें कहीं भी कुछ भी कन्टीन्यूटी नहीं है, सातत्य नहीं है, स्थिरता नहीं है । प्रत्येक क्षण में प्रतीति का प्रत्येक दृश्य बदलता ही जा रहा है - वह तो ऐसा है जिसमें एक क्षण के लिए भी ठहराव नहीं है, उसको पकड़ करके विश्राम पाने की कैसे सोच सकता है आदमी ! दौड़ते हुए को पकड़ करके कोई शान्ति से बैठ सकता है ? नहीं बैठ सकता है ना - तो प्रतीत होने वाली प्रतीति । प्रतीति शब्द का प्रयोग तब किया जाता है जबकि उसका यह अर्थ निकले कि वह कैसा है, यह पता नहीं है, अपने को जैसा दिखता है, वैसा मैने मान लिया । तो पहले तो यही निराधार हो गया ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 14-17) ।