Monday 9 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 09 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

        संसार कैसा है ? ये कोई नहीं जानता, हम सब लोग संसार की तरफ देखते हैं तो एक ही दृश्य, एक ही घटना अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग अर्थ बताती है । होता है कि नहीं और एक ही व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल जाए तो सृष्टि बदल जाता है । सुख-भोग की दृष्टि से देखो तो संसार में बडा आकर्षण दिखायी देता है । और संत कबीर जी से पूछो तो क्या कहेंगे – “हाड़ जले जैसे लकड़ी, केश जले जैसे घास, सब जग जलता देखिकर कबिरा भया उदास ।'' तो वह ही संसार है कि दूसरा है ? वह ही है । तो भोगी को बड़ा आकर्षक लगता है, और विवेकी को काल की अग्नि में जल रहा है, सब जल रहा है, काल की अग्नि में सब भस्म हो रहा है । और कहीं प्रभु प्रेम के रस से दृष्टि ढक गयी तो  ''आप छके नैना छके, अधर रहे मुसकाय, छकी दृष्टि जा पर पड़े, रोम-रोम छक जाय ।'' अब क्या हो गया? संसार वही है कि दूसरा है ? वह ही है । तो ऐसा आप सोच करके देखेंगे कि व्यक्ति की, अपनी भूल से संसार की ओर खिंचाव लगता है । और मुझको बड़ा आश्चर्य लगता है, अपने पिछले दिनों की याद कभी-कभी आ जाती है तो ऐसी हँसी आती है कि कितनी नादानी की बात है । देख रहे हो कि सब दौड़-दौड़ करके, दौड़-दौड़ करके भागता जा रहा है ।

        सबमें परिवर्तन हो रहा है, कही एक क्षण के लिए ठहराव नहीं है और उसको पकड़ करके आदमी स्थिर होना चाहता है। कितनी बेवकूफी है बताओ तो सही ।  अरे जो भागता जा रहा है, वह तुमको विश्राम दे देगा । जिसमें निरन्तर गतिशीलता है, वह तुमको स्थिरता दे देगा । नहीं देगा ना ! तो इसका फल क्या होना चाहिए । इस अनुभव का फल यह होना चाहिए कि भाई यहाँ जो कुछ अपने सामने प्रतीत हो रहा है, यह किसका है और कैसा है? इसका पता तो हमको अभी नहीं चलेगा, पीछे चलेगा । लेकिन एक बात सच्ची है कि जिसमें एक क्षण के लिए भी ठहराव नहीं है, यह मेरे काम का नहीं है । अपने को क्या चाहिए ? अपने को तो परम शांत जीवन चाहिए । अपने को तो परम स्वाधीन जीवन चाहिए, अपने को परम प्रेम चाहिए । इस को अपनी माँग पर दृष्टि रखकर दृष्टिकोण में परिवर्तन कर लीजिए तो रुचि-पूर्ति का त्याग कर दीजिये आज ही अभी से । और माँग पूर्ति के लिए जीना आरम्भ कीजिए । तो मैने ऐसा सुना है, ऐसा विश्वास करती हूँ और कुछ-कुछ ऐसा अनुभव भी है कि जिस क्षण से आप यह निश्चय करेंगे कि मुझे रुचि-पूर्ति का जीवन नहीं चाहिए, मुझे तो माँग-पूर्ति का पुरुषार्थ करना है, ऐसा आप निश्चय करेंगे तो वे अनन्त सामर्थ्यवान आपके भीतर बिना माँगे वह सामर्थ्य भर देंगे कि जिससे आप पुरुषार्थ पूरा कर सकें । ऐसा होता है और आपको हर्ष की बात सुना दूँ कि उत्तराखण्ड में अनुष्ठान करने का संकल्प लेकर जो गृहस्थी लोगों की सहायता लेने के लिए जो सज्जन आये थे, दो चार दिनों तक सुनते-सुनते जाने के समय मुझसे कह कर गए कि बहनजी मैने अनुष्ठान का संकल्प छोड़ दिया । बहुत मजा आया मुझे, हमने कहा कि चलो एक काम बन गया । तो उनका काम तो हो गया और अपने काम को मैं एक बार और दोहरा दूँ, समय खत्म होने वाला है ।

-  (शेष आगेके ब्लाग में) 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 17-18) ।