Tuesday 10 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 10 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन 1

        यह कथा मैं इसलिए सुना रही हूँ कि हमारे पारिवारिक परिवेश में बँधे हुए भाई-बहन जो हैं, वे हमेशा सत्संग के प्रोग्राम को भविष्य पर टालते रहते हैं । बच्चों की पढ़ाई खत्म हो जाए तब करेंगे और इतना यह काम पूरा हो जाए तो यह करेंगे, अब इतनी यह समस्या पूरी हो जाए तो यह करेंगे, तो अनुभवी संत की अनुभव भरी वाणी है ये कि माँग-पूर्ति का प्रोग्राम जो है, उसको एक क्षण के लिए भी भविष्य पर मत टालो। क्यों ? क्योंकि जो बात इसी वर्तमान में स्वयं अपने द्वारा सैल्फ कन्सैप्ट को बदल डालने से पूरी हो सकती है, उस बात के लिए किसी विशेष परिस्थिति पर क्यों निर्भर करते हो । मुझे अब रूचि-पूर्ति का सुख नहीं चाहिए, इस सत्य को स्वीकार करने में 2, 4, 5, 10 मिनट की देर लगाने की जरूरत है क्या? कि कपडा बदल लें कि स्नान कर लें तब ऐसा सोचेंगे, यह जरुरी है क्या ? जी ! कि घर में से निकल कर मन्दिर के दरवाजे जाकर बैठेंगे तब सोचेंगे । जरूरी है ? क्या जाने यहाँ से उठकर के मन्दिर तक जाने के पहले ही हार्ट फेल हो गया तो काम बाकी रह जाएगा ना! रह जाएगा ।  तो बड़ी भारी घाटा होगा । सत्य की स्वीकृति में अपने सैल्फ के प्रति अहम् के प्रति, अपने मैं के प्रति सही दृष्टिकोण को अपनाने में और गलत दृष्टिकोण को अपनाने में और गलत दृष्टिकोण का त्याग करने मैं किसी प्रकार की बाहरी तैयारी की जरुरत नहीं है । यह बात समझ में आती है ?

        तो अब सत्संग के प्रोग्राम के लिए भविष्य की प्रतीक्षा कभी मत करना । हाँ, जहाँ-जहाँ आप कमरों मैं ठहरे हुए हैं, ठण्डे जल से स्नान करने के फलस्वरूप घुटने मैं दर्द हो गया, बुखार आ गया, वहाँ से चला नहीं गया । तो यहाँ तक आप नहीं आ सकेंगे ऐसी सम्भावना है । वहाँ से उठ करके यहाँ तक आना कठिन हो सकता है, लेकिन जहाँ हैं वहीं पर और घुटने में दर्द को लिए हुए भी अपने प्रति दृष्टिकोण को बदलने में कोई बाधा नहीं हैं । यह सोचना कि हाय किसी प्रकार से ये दर्द छूट ही जाये और चलने के लायक हो ही जाए ऐसा सोचना, यह सत् का चिंतन होगा कि असत् का चिंतन होगा ? कैसा होगा बोलो ? असत् का चिंतन होगा । जिसकी उत्पत्ति हुई है उसका नाश तो कालान्तर में होगा ही। दर्द उत्पन्न हुआ है तो दर्द भी मिटेगा ओर शरीर उत्पन्न हुआ है तो शरीर भी मिटेगा, तो कहाँ तक उसका चिन्तन करोगे। 

        कहाँ तक उसकी फिक्र में रहोगे ? अगर इसको सँभालने की चिन्ता छोड़ करके जो स्वयं में ही विद्यमान है, उसपर दृष्टि चली गयी तो मेरा ऐसा विश्वास भी है और यह सत्य भी है कि अगर उस पर दृष्टि चली गयी तो तत्काल ही भीतर के आनन्द की तरंग में अहम् ऐसा अभिभूत हो जाता है कि कुछ काल के लिए शरीर का और दर्द का पता ही नहीं चलता है । ऐसा होता है और साधन काल में होता है । सिद्धि काल की चर्चा मैं नहीं करती हूँ। जीवन पूर्ण हो गया होता तो बोलने का काम भी खत्म हो गया होता । यह साधन काल की चर्चा में कर रही हूँ । थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बैठ करके, व्यक्तिगत सत्संग के क्रम में, विश्राम-सम्पादन के क्रम में, समर्पण योग में, आप थोड़ी-थोड़ी देर के लिए ठहरना पसंद करें तो उसी समय आपके अनुभव में यह बात आ जाएगी कि सत्य की अभिव्यक्ति में इतनी अलौकिकता है कि उस अलौकिकता के आराम में और उसके आनन्द में शरीर का भास खत्म हो जाता है । तो जो रहने वाली चीज है, उसी को सँभालना चाहिए हम लोगों को और इस बिगड़ने वाले का कुशल कब तक मनाओगे भाई ! हाय ! हाय ! इसलिए जो सेवा उसके प्रारब्ध से उसके लिए वर्तमान में उपलब्ध हो, उसकी समर्पण करके, इसको प्रणाम करके, इससे छुट्टी माँग के अपने जीवन में रहने का पुरुषार्थ आरम्भ करो । 

        भाई ! जो अपना है, उसमें रहने का पुरुषार्थ आरम्भ करो। जो सदा-सदा के लिए है, उसकी याद में मस्त हो जाओ । जो परम प्रेम का भण्डार है, उसके रस में जन्म-जन्मान्तर के सब विकारों को धोकरके परम विश्राम में बड़ा आनन्द लगता है । पता नहीं वह जीवन कहाँ तक जाता है, कितनी दूर तक जाता है, सो तो पता नहीं है, लेकिन थोड़ी सी झलक मिल जाती है जब, तो सारा संसार फीका लग जाता है । इतना काम तो इसी साधन काल में हो जाएगा । जरूर कर डालो ।

- 'जीवन विवेचन भाग 6 (क)' पुस्तक से, (Page No. 18-20) ।