Wednesday 11 September 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 11 September 2013  
(भाद्रपद शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग

 मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव!

        मानव-जीवन बड़े ही महत्व की वस्तु है । मानव में बिज-रूप से मानवता विद्यमान है, उसे किसी अप्राप्त योग्यता की आवश्यकता नहीं है, किन्तु प्राप्त योग्यता के सदुपयोग की आवश्यकता है ।

        इस दृष्टिकोण को जब हम अपने सामने रखते हैं, तो हमारे जीवन में एक नवीन आशा का संचार होता है और निराशारूपी पिशाचिनी, जो जीवन के साथ है, भाग जाती है । जिस जीवन में हम अपनी कर्त्तव्य-परायणता से सुगमतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें, उसी जीवन का नाम मानव-जीवन है । इस बात की कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिये कि हमारी साधन-सामग्री कैसी है, क्योंकि प्राकृतिक नियम के अनुसार सभी परिस्थितियों में साधन का निर्माण हो सकता है । हमें तो केवल यह देखना चाहिये कि हम अपनी प्राप्त परिस्थिति का आदरपूर्वक कितना सदुपयोग करते हैं । परिस्थितियों का सदुपयोग ही वास्तव में जीवन का आदर है ।

        आदर का अर्थ ममता अथवा मोह नहीं है । आदर का अर्थ है - परिस्थितियों को प्राकृतिक न्याय मानना या आस्तिक दृष्टि से अपने परम प्रेमास्पद का आदेश तथा सन्देश जानना । यह भलीभाँति जान लेना चाहिये कि प्राकृतिक न्याय में प्राणी का हित तथा उन्नति ही निहित है, अवनति नहीं । इसलिए प्रत्येक परिस्थिति का आदर करना ही उचित है । हमारे और आपके सामने इस समय सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हमारी बहुत-सी शक्ति अप्राप्त परिस्थिति के आह्वान तथा चिन्तन में ही वृथा व्यय हो जाती है, जिससे हम प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग नहीं कर पाते । अत: अप्राप्त परिस्थिति का व्यर्थ-चिन्तन त्याग कर शक्ति संचय करें और उसके द्वारा वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग कर डालें । यह नियम है कि वर्तमान के सदुपयोग से ही भविष्य उज्ज्वल बनता है, व्यर्थ-चिन्तन से नहीं । परिस्थिति का सदुपयोग कर्म से होता है । परिस्थितियों के चिन्तन से तो उनमें आसक्ति ही उत्पन्न होती है । अत: परिस्थितियों का चिन्तन कोई साधन नहीं, अपितु अनेक दोषों की उत्पत्ति का हेतु है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 1-2) ।